अरविंद केजरीवाल (डिजाइन फोटो)
नवभारत डेस्क: देश की राजधानी दिल्ली में चुनाव की घोषणा सन्निकट है। लोकलुभावन चुनावी वादों का बाजार खुलने वाला है। आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को प्रति माह 2100 रुपये देने का वादा किया है, भाजपा भी तैयारी में है, कांग्रेस भी पीछे नहीं रहने वाली। दिल्ली में लगभग डेढ करोड से अधिक मतदाताओं में से 70 लाख महिला मतदाता हैं।
पिछले विधानसभा चुनाव में यहां की 70 में से अनधिकृत कालोनी व झुग्गी बस्तियों वाले 30 विधानसभा क्षेत्रों में महिला मतदाताओं का मत प्रतिशत पुरुषों से अधिक था, यह इनकी वोटिंग के प्रति बढ़ती रुझान और जागरूकता के साथ यह भी बताता है कि इनको लुभाने वाला संख्याबल में बाजी मार ले जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत वर्ष महिला दिवस के मौके पर स्वीकारा था कि महिला मतदाता उनकी ढाल हैं।
मुख्य चुनाव आयुक्त कहते हैं कि देश में कम से कम 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुरुषों की तुलना में महिला मतदाता अधिक हैं। पिछले कई विधानसभा चुनावों में महिलाओं को लुभाने में कामयाब योजनाओं ने सियासी दलों को सत्ता दिलाई। महाराष्ट्र में चुनाव से ठीक पहले, महायुति गठबंधन की सरकार ने महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये देने की घोषणा की। उसको अप्रत्याशित चुनावी सफलता मिली।
कई सीटों पर एनडीए के उम्मीदवारों ने जिन सीटों पर 7,000 के आसपास मतों से जीत हासिल की उन पर महिला मतदाताओं की संख्या में भी इतने की ही बढ़ोतरी गई। साफ है कि महिलाओं ने ही बीजेपी और उसके गठबंधन की जीत में अहम भूमिका निभाई। झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार ने मइया सम्मान योजना के तहत हर महीने 2500 रुपये महिलाओं को देने के लिए कहा और चुनाव जीत गए।
बिहार में चुनाव दूर हैं लेकिन तेजस्वी यादव ने घोषणा कर दी है कि बिहार चुनाव जीतते ही वे महिलाओं को हर महीने 2500 रुपये देंगे, ममता बनर्जी ने 2021 के विधानसभा चुनाव में हर परिवार की महिला मुखिया को नकद रुपये देने का वादा किया और चुनाव जीतीं। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने इंदिरा गांधी प्यारी बहना सम्मान निधि के तहत महिलाओं को 1500 रुपये बांटे और सरकार बनाने में कामयाबी पायी।
आप ने पंजाब में इस फार्मूले को अपनाया, वादा नहीं निभाया पर सरकार बनाई। भाजपा भी इसमें पीछे नहीं रही। मध्यप्रदेश की लाडली बहना को आज भी गेमचेंजर माना जाता है। कर्नाटक सरकार ने लक्ष्मी योजना चला रखी है तो तमिलनाडु में कलैगनार मगलीर उरीमई स्कीम चल रही है।
कई दूसरे राज्यों में अलग अलग नामों से महिला मतों को लुभाने के अनेक कार्यक्रम चल रहे हैं, जो ज्यादातर गरीब, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली महिलाओं के बारे में हैं तो कुछ सद्य प्रसूता और वृद्धाओं के लिये भी हैं। ये महिला लुभावन योजनाएं महिलाओं को किसी धर्म, जाति, संप्रदाय के मतसमूह की तरह वोट बैंक बनाती हैं।
इससे महिलाओं को समाज और राजनीति में उच्चतर प्रतिनिधित्व या समान अधिकार मिले हों, उनमें आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन बढ़ा हो ऐसा अभी तक के आंकड़े बयान नहीं करते। चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या तो बढ़ गई मगर उनकी उम्मीदवारी की संख्या में कोई उछाल नहीं आया।
यदि राजनीतिक दल महिलाओं के प्रति वास्तविक सदिच्छा रखते तो महिला आरक्षण विधेयक संसद में पारित होने के बाद उसे लागू होने के लिए परिसीमन तथा अगली जनगणना के पूरे होने का इंतजार नहीं करना पड़ता। महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए नकद लाभ देने की रणनीति का उद्देश्य महंगाई और बेरोजगारी की चिंता को कम करना अधिक है।
2500 रूपये की सीमित राशि सुर्खियां भले बने पर महिलाओं को आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्याप्त कतई नहीं है उल्टे कई राज्य महिला मत खरीदने के इस फेर में दिवालिया हुए जा रहे हैं, उन्हें बार बार कर्ज लेना पड़ रहा है। राज्य की विकास योजनाएं बाधित हो रही हैं पर चुनाव जीतकर सरकार बनाने के लिये महिला मत जरूरी हैं।
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महिला मतों को लुभाकर पार्टियां सरकार भले ही बना लें पर जहां राज्य की अर्थव्यवस्था को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है, वहीं महिलाओं का भी कुछ स्थायी और पर्याप्त भला नहीं हो रहा है। दिल्ली चुनावों से पहले अरविंद केजरीवाल द्वारा महिलाओं को नकद राशि बांटने की घोषणा दिल्ली की आर्थिकी चौपट कर सकती है।
महिला मतदाताओं की संख्या में वृद्धि ने पार्टियों को महिला लुभावन घोषणाओं के लिये मजबूर कर दिया है, लेकिन उनकी घोषित योजनाएं महिला मतदाताओं के लिए स्थाई सामाजिक, आर्थिक उन्नति तथा राजनीति में उनके प्रतिनिधित्व एवं अधिकारों की बढ़ोत्तरी से जुड़ी नहीं है।
लेख- संजय श्रीवास्तव द्वारा