(डिजाइन फोटो)
अगर केंद्र व राज्य में एक ही राजनीतिक दल सत्तारूढ़ है, तो संबंधित राज्य के राज्यपाल अक्सर ‘सजावटी रबड़ की मोहर’ जैसी भूमिका में होते हैं। लेकिन अगर राज्य में केंद्र से अलग किसी विपक्षी दल की सरकार है, तो उस राज्य के राज्यपाल अक्सर ‘सक्रिय पोलिटिकल एक्टिविस्ट’ की भूमिका में आ जाते हैं। इससे राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तकरार व तनाव की स्थिति बन जाती है।
कई बार तो विवाद अदालत तक भी पहुंच जाता है। दशकों से यही हालात देखने को मिलते रहे हैं, केंद्र में सरकार चाहे जिस दल या गठबंधन की हो, राज्यपाल की नियुक्ति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इस पृष्ठभूमि में राज्यपाल का पद हमेशा ही तीखी बहस का विषय रहा है और इस पद को अनावश्यक बताते हुए इस पर विराम लगाने की भी बातें उठती रही हैं।
26 जुलाई को राज्यसभा में एक सदस्य ने एक निजी विधेयक पेश करने का प्रयास किया, जिसमें आग्रह किया गया था कि राज्यपालों को राज्य मंत्रिमंडल की सलाह मानने के लिए संवैधानिक दृष्टि से बाध्य किया जाए। केरल से माकपा सांसद जॉन ब्रिटटास के इस विधेयक पर राज्यसभा में जबरदस्त हंगामा हुआ। हालांकि एक दुर्लभ घटना में संविधान (संशोधन) विधेयक के प्रस्तुतिकरण को सत्तापक्ष ने ध्वनिमत से पराजित कर दिया, लेकिन उप-सभापति हरिवंश ने जॉन ब्रिटटास को प्रस्तावित विधेयक पर संक्षिप्त टिप्पणी करने की अनुमति दी।
प्रस्तावित विधेयक में यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है कि अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए राज्यपाल सख्ती से संविधान के प्रावधानों के दायरे में रहें और राज्य मंत्रिमंडल की सलाह के पाबंद रहें। विधेयक में कहा गया कि राज्यपाल चांसलर बनने या कोई अन्य गैर-संवैधानिक भूमिका हासिल करने का प्रयास न करें।
जॉन ब्रिटटास ने आरोप लगाया कि केंद्र संघवाद की दुहाई तो देता है लेकिन राज्यपालों की भूमिका फेडरल स्ट्रक्चर को ही क्षति पहुंचा रही है। जॉन ब्रिटटास के विरोध में बीजेपी सांसद सुधांशु त्रिवेदी का जवाब था कि भारत का संविधान अर्ध-संघवाद है और राज्यपाल को राष्ट्रपति का प्रतिनिधि समझा जाता है। अगर राज्यपाल को राज्य मंत्रिमंडल की सलाह का पाबंद कर दिया जायेगा तो राष्ट्रपति के अधिकार का क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह राज्यपालों के लिए दिशा-निर्देश गठित करने पर विचार करेगा कि वह कब विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को मंजूरी देना होल्ड कर सकते हैं या उसे राष्ट्रपति को रेफर कर सकते हैं। इससे एक सप्ताह पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आपराधिक मुकदमों से जो राज्यपालों को पूर्ण संवैधानिक इम्युनिटी मिली हुई है, उसकी वैधता की वह जांच करेगा।
26 जुलाई 2024 को ही केरल व बंगाल भी तेलंगाना व तमिलनाडु के साथ यह आरोप लगाने में शामिल हो गए कि राज्यपाल विधेयकों से संबंधित अपनी शक्तियों का मनमाना प्रयोग करते हैं। केरल व बंगाल की तरफ से पेश होते हुए वरिष्ठ वकीलों केके वेणुगोपाल, एएम सिंघवी और जयदीप गुप्ता ने कहा कि राज्यपालों ने यह ट्रेंड बना लिया है कि विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी करें और फिर उन्हें राष्ट्रपति के संज्ञान के लिए आरक्षित कर दें।
मुख्य न्यायाधीश डीव्हाई चंद्रचूड, न्यायाधीश जेबी पारदीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्रा की खंडपीठ ने गृह मंत्रालय और राज्यपालों के सचिवों को नोटिस जारी किया है कि वह विधेयकों से संबंधित राज्यपालों की शक्तियों के संवैधानिक प्रावधानों की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करें। वेणुगोपाल का कहना है, “विधेयकों को मंजूरी देने के संदर्भ में राज्यपाल असमंजस में हैं। केरल में आठ विधेयकों में से दो 23 माह से लम्बित हैं। एक 15 माह से, एक अन्य 13 माह से और तीन 10 माह से लम्बित हैं। यह बहुत दुखद व चिंताजनक स्थिति है। संविधान को ही निर्धक्रय बनाकर रख दिया गया है। लेख चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा