(डिजाइन फोटो)
कोविड की वजह से 2021 में जनगणना कराना संभव नहीं था लेकिन अब सरकार विलंब से ही सही जनगणना कराने की तैयारी में है। हमारी सभी विकास योजनाओं का नियोजन जनगणना के आंकड़ों की बुनियाद पर होता है। समाज के जरूरतमंद घटकों की पहचान इसके जरिए होती है। अभी सरकार की विभिन्न योजनाएं 2011 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर चल रही हैं लेकिन तबसे 13 वर्षों से आंकड़ों में बहुत बदलाव आया है।
इस समय विवादास्पद मुद्दा यह है कि क्या जातीय आधार पर जनगणना होगी और उस बुनियाद पर जानकारी संकलित की जाएगी? बिहार में जातीय जनगणना का मुद्दा सबसे अधिक जोर पकड़ रहा है। लोकसभा चुनाव के दौरान भी वह चर्चा के केंद्र में रहा। बिहार में सभी विपक्षी पार्टियों के अलावा सत्तारूढ़ जदयू और लोजपा भी जातीय जनगणना की मांग कर रहे हैं।
बीजेपी इस मांग को सहसा ठुकरा नहीं सकती। इसके अलावा अभी होने वाली जनगणना के आधार पर महिलाओं को लोकसभा और विधानसभा में 33 फीसदी आरक्षण मिल सकता है। जनगणना पूरी होने के बाद लोकसभा और विधानसभा चुनाव क्षेत्रों की पुनर्रचना या परिसीमन किया जाएगा। देश में हर 10 वर्ष में जनगणना कराना तय हुआ था। देश की आबादी 1951 में 36 करोड़, 1961 में 44 करोड़ और 1971 में 55 करोड़ थी। तब क्रमश: 494, 522 और 543 लोकसभा क्षेत्र बने।
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अभी भारत की आबादी 140 करोड़ के आसपास मानी जा रही है। देश के उत्तरी राज्यों की जनसंख्या दक्षिणी राज्यों के मुकाबले अधिक बढ़ी है। यदि आबादी के अनुसार सीमांकन किया जाता है तो कुछ राज्यों की लोकसभा और विधानसभा सीटें बढ़ जाएंगी तो अन्य राज्यों की सीटें घट सकती हैं। यदि लोकसभा की 543 सीटें कायम रहीं तो यूपी में 11, बिहार में 10, मध्यप्रदेश में 6 तथा राजस्थान में 4 लोकसभा सीटों की वृद्धि हो सकती है।
इसके विपरीत दक्षिणी राज्यों तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना में प्रत्येक 8 और कर्नाटक लोकसभा की 2 सीटें कम की जा सकती हैं। यदि परिसीमन के बाद 10 से 12 लाख आबादी का लोकसभा चुनाव क्षेत्र बनाया गया तो लोकसभा की कुल सीटें बढ़कर 848 हो सकती है। नया संसद भवन इन जरूरतों को देखते हुए ही बनवाया गया है। यूपी में अभी 80 लोकसभा सीटें हैं जो परिसीमन के बाद बढ़कर 143 हो सकती हैं। बिहार में 79, मध्यप्रदेश में 52, राजस्थान में 50 सीटें हो सकती हैं।
दक्षिण भारत की कम आबादी की वजह से वहां सीटें घट जाएंगी। इससे देश का राजनीतिक संतुलन बिगड़ेगा और उत्तरी राज्यों का वर्चस्व बढ़ेगा। आबादी सीमित रखने का राजनीतिक नुकसान दक्षिणी राज्यों को उठाना पड़ेगा। उत्तरी राज्य पहले ही बड़ी और घनी आबादी, गरीबी और सांप्रदायिक उन्माद का वातावरण झेल रहे हैं। इन सारे पहलुओं के बावजूद जनगणना होना आवश्यक है।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा