
पुष्कर सिंह धामी (डिजाइन फोटो)
नवभारत डेस्क: उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होने से अब लिव-इन रिलेशनशिप का दुरुपयोग नहीं होगा; क्योंकि अब हर लिव-इन में रहने वाले जोड़े को एक माह के भीतर अनिवार्य पंजीकरण एक रजिस्टर्ड वेब पोर्टल पर कराना होगा। लिव-इन में आने के एक महीने के भीतर अगर यह पंजीकरण नहीं कराया गया तो न्यायिक मजिस्ट्रेट दोषी को तीन माह के कारावास की सजा या 10 हजार रुपये का जुर्माना या फिर दोनों सजा सुना सकते हैं।
यूसीसी लागू होने के बाद लिव-इन रिलेशनशिप की व्याख्या पूरी तरह से बदल गई है। इस व्याख्या के अनुसार दोनों साथियों में से कोई भी इस रिश्ते को जब चाहे खत्म कर सकता है, लेकिन उसे इसकी सूचना भी सबरजिस्ट्रार को देनी होगी। यूसीसी लागू होने के बाद उत्तराखंड में लिव-इन रिलेशनशिप पूरी तरह से परिभाषित हो चुका है।
लिव-इन रिलेशनशिप को लंबे समय से एक कानूनी दायरे की जरूरत थी। जल्द ही यह देश के दूसरे हिस्सों में भी वैधता हासिल करेगा। भारतीय समाज में विवाह की संस्था को बहुत महत्व दिया जाता है। लेकिन बदलते समय के साथ ऐसे रिश्तों की संख्या बढ़ी है, जिनमें लोग विवाह के बंधन में बंधे बिना यानी लिव-इन रिलेशनशिप में रहना पसंद कर रहे हैं।
हालांकि ऐसे लोग हमेशा शुरुआत में यही दलील देते हैं कि उन्हें आपस में एक दूसरे पर अटूट भरोसा है, लेकिन अब तक सैकड़ों मर्तबा ऐसी स्थितियां सामने आयी हैं, जब इस रिश्ते को कानूनी दायरे में लाने की जरूरत महसूस हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में डी. वेलुसामी बनाम डी. पद्मालथी के मामले में कहा था कि लंबे समय तक साथ रहने वाले जोड़ों को पारिवारिक संबंध की श्रेणी में रखा जा सकता है।
इसका उद्देश्य दरअसल लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही महिलाओं को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत सुरक्षा देना था। अब जबकि उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू हो चुका है, तो महिलाओं को इसके चलते लिव-इन में रहते हुए घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत सुरक्षा मिलेगी।
ऐसा ही एक मामला वित्तीय सुरक्षा से भी जुड़ा है। इस संबंध में भी साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट के सामने लिव-इन रिलेशनशिप का एक मामला आया था, जब इंदिरा सरमा बनाम वीकेवी सरमा का मामला सुनवाई के लिए कोर्ट पहुंचा था और इस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के तहत सुरक्षा का अधिकार है।
यह घरेलू हिंसा के साथ साथ वित्तीय सुरक्षा का भी मामला था। ऐसे ही एक तीसरे मामले में तुगराम बनाम सीताराम (2011) का मामला राजस्थान हाईकोर्ट के सामने आया था, जब राजस्थान हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया था कि लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चों को संपत्ति पर हक दिया जा सकता है।
इस मामले में हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया था कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों के बच्चों को अवैध नहीं माना जा सकता। अतः इन बच्चों को अपने माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार होगा बशर्ते यह साबित हो सके कि उनके माता पिता लंबे समय तक लिव-इन रिलेशनशिप में रहे, जो कि विवाह जैसा ही एक संबंध माना जा सकता है।
वास्तव में यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार और गरिमा को सुनिश्चित करता है। यह बच्चों के हितों को प्राथमिकता देने पर भी जोर देता है। इस तरह देखा जाए तो अलग अलग अदालतें दशकों से लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी दायरे में लाने या बांधने की कोशिश करती रही हैं, मगर इसके लिए कोई व्यवस्थित कानूनी जामा नहीं था। उत्तराखंड में लागू हुई यूनिफॉर्म सिविल कोड अब ऐसे मामलों के लिए व्यवस्थित कवच है।
अगर कोई कपल लिव-इन में रह रहा है और कुछ दिनों बाद उनके ब्रेकअप हो जाता है, तो उत्तराखंड में लागू यूसीसी के प्रावधान के तहत कपल को अपने बीच ब्रेकअप होने की जानकारी भी रजिस्ट्रार को देनी होगी ताकि अगर रिलेशनशिप में रहते हुए उस कपल को कोई बच्चा पैदा होता है तो उस बच्चे की मां अपने लिव-इन पार्टनर से महिला गुजाराभत्ते की मांग कर सके।
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कुल मिलाकर उत्तराखंड में लागू हुई यूनिफॉर्म सिविल कोड के तहत जिस तरह से लिव-इन रिलेशनशिप को रखा गया है, उसका हर तरफ स्वागत हुआ है। लिव-इन रिलेशनशिप को यूसीसी के तहत कानूनी दायरे में लाया जाना इस बात का संकेत भी है कि भारतीय न्यायपालिका और विधायिका सामाजिक बदलावों के साथ खुद को ढालने का प्रयास कर रही हैं। पिछले कुछ सालों में जिस तेजी से लिव-इन रिलेशनशिप के दौरान आपराधिक घटनाएं बढ़ी थीं, उसके कारण इस लिव-इन रिलेशनशिप को कानूनी दायरे में लाना जरूरी था।
लेख- डॉ. अनिता राठौर द्वारा






