गर्मी, हवा, बारिश की परवाह किए बिना जीवनयापन कर रहा डोंबारी समुदाय (सौजन्यः सोशल मीडिया)
Chandrapur News: छत्तीसगढ़ से लेकर महाराष्ट्र के गांवों तक भटकने वाला डोंबारी परिवार नवरगांव में दाखिल हुवा। नवरगांव के बाज़ार चौक में यह खेल चल रहा था। यह खेल देखते हुए हमें कई संदेश तो नहीं दे रहा? यह सवाल उठा।आज भी गरीबी और अमीरी के बीच बहुत बड़ा अंतर है। यह अंतर कब मिटेगा और ये नन्हे-मुन्ने कब अपनी जान से खेलना कब बंद करेंगे? यह एक सवाल है। डोंबारी समाज के छोटे बच्चे जानलेवा करतबे दिखाते है वह केवल दो वक्त की रोटी और परिवार के निर्वाह के लिए। सरकार द्वारा समुदाय के विकास के लिए केवल बडी बाते की जाती है लेकिन इसके पिछे हकिकत कुछ और ही बया करती है।
नवरगांव में दोपहर के समय डोंबारा समुदाय की पांच साल की बच्ची ऊंची रस्सी पर चल रही थी। नीचे ढोल की थाप पर संतुलन बनाए रखते हुए, वह अपना संतुलन बनाए हुए थी। पैरों में साइकिल का रिंग, कभी हाथ में बैलेंस स्टिक, कभी सिर पर जग और पैरों के नीचे रस्सी, वह रस्सी को इधर-उधर हिलाए बिना, असाधारण एकाग्रता से रस्सी पर आगे-पीछे हिल रही थी। तब ऐसा क्यों? किसलिए? जवाब एक ही है, पेट के लिए!
इस समाज में परिवारों की पीड़ा कई लोगों की आंखों में आंसू ला रही है. इस पापी पेट के लिए यह नन्हे बच्चे जीवन भर मेहनत करते है। एक ऐसे बच्चे के लिए जो खुद पर भी निर्भर नहीं है। कुछ लोग खाने के लिए मेहनत करते हैं, कुछ मना कर देते हैं, कुछ उठकर अपनी थाली में खाना फेंक देते हैं, जबकि कुछ लोगों के पास खाने से भी कम होता है। डोंबारी समाज की वह छोटी बच्ची के खेल देखकर जीवन और देश के इस सत्य को नहीं छिपा सकते। अंततः प्रश्न उठता है: इस स्थिति के लिए कौन ज़िम्मेदार है?
एक ओर केंद्र और राज्य सरकार स्कूल न जाने वाले बच्चों को शिक्षा की धारा में लाने के लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास कर रही हैं, वहीं वास्तविकता कुछ और है। पांच साल के बच्चों को जानलेवा करतबे करने और अपनी कमाई पर गुज़ारा करने के लिए मजबूर होते देखकर, निश्चित गरीबी शब्द मन में आता है। डोंबारी के घर में बच्चे के जन्म के बाद, उसे छोटी उम्र से ही खेलकूद का प्रशिक्षण दिया जाता है। साइकिल के गोल घेरे के अंदर-बाहर पूरे शरीर को फेंकना, छड़ी के सहारे रस्सी पर चलना आदि जैसे खेल बच्चों को छोटी उम्र से ही सिखाए जाते हैं।
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हालांकि समाज के कुछ वर्गों की आवाज़ सरकार तक पहुंची है कि इस समाज को बेहतर बनाया जाना चाहिए, लेकिन देखा गया है कि असली लाभार्थी इससे वंचित रह जाते हैं। डोंबारी समुदाय की छोटी-छोटी बच्चियां ऐसे कुशल व्यायाम करती हैं जिन्हें देखकर ओलंपिक एथलीट भी शर्मा जाएं।
शिक्षा, विकास और आधुनिकता से अछूता यह डोंबारी समुदाय सड़क किनारे पारंपरिक डोंबारी कला का प्रदर्शन करता है, नृत्य और खेलकूद को मिलाकर, छोटे घेरे से शरीर को बाहर निकालना, हाथ में बामस लेकर रस्सी पर चलना, खंभों पर कूदना, आंखों में सुई चुभाना आदि जैसे कई साहसिक खेल करता है। खेल के बाद मिलने वाले पैसों से वे अपना पेट भरते हैं।
कला की कद्र नहीं…
दुर्लभ डोंबारी समुदाय का खेल देखने का समय न होने से डोंबारी समुदाय की आजीविका का यह व्यवसाय संकट में आ गया है। पहले इस कला से अर्जित धन से परिवार का गुज़ारा ठीक-ठाक चलता था। लेकिन अब देखने वाली आंखें कम हो गई हैं और देने वाले हाथ भी हकीकत बन गए हैं। न गांव है, न घर का पता, न सहारा, न बाशिंदे, शिक्षा की खुशबू के बिना डोंबारी समुदाय का दर्द अनोखा है।