बंबई उच्च न्यायालय (सोर्स: सोशल मीडिया)
मुंबई: बंबई उच्च न्यायालय ने मुआवजे को लेकर एक मामले की सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र सरकार को कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने 1990 में एक सार्वजनिक परियोजना के लिए एक महिला की भूमि अधिग्रहित करने के बाद उसे मुआवजा न देकर अपने अनिवार्य कर्तव्य से बचने के लिए महाराष्ट्र सरकार पर सवाल उठाए हैं।
मामले की सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति गिरीश कुलकर्णी और न्यायमूर्ति सोमशेखर सुंदरेशन की पीठ ने कहा कि कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना या मुआवजा दिए बिना किसी व्यक्ति की भूमि का अधिग्रहण करना संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।
हाई कोर्ट ने यह आदेश दो मई को सुमित्रा श्रीधर खाने की याचिका पर दिया। उन्होंने कहा था कि सरकार ने सितंबर 1990 में कोल्हापुर जिले के वहनूर गांव में उनकी जमीन का अधिग्रहण किया था, लेकिन उन्हें आज तक मुआवजा नहीं दिया गया है।
हाई कोर्ट ने कहा कि यह मामला संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत याचिकाकर्ता के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है। शीर्ष अदालत ने कहा कि यह भूखंड मालकिन के साथ न केवल अन्याय है, बल्कि अभी तक मुआवजा नहीं दिये जाने से यह लगातार अन्याय जारी रखने का भी मामला बनता है।
अदालत ने राज्य सरकार में संवेदना की कमी को लेकर नाराजगी जताते हुए कहा कि इस दुखद वास्तविकता को कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि ऐसी स्थिति में हर व्यक्ति इतना भाग्यशाली नहीं होता कि वह अपने कानूनी अधिकारों के बारे में जानकारी रखता हो, फिर कानूनी सलाह मिले और उसके बाद अदालत का दरवाजा खटखटाया जाए।
मामले की सुनवाई करते हुए अदालत ने सरकारी अधिकारियों को भी फटकार लगाई है। कोर्ट ने कहा कि हर व्यक्ति के पास ऐसा करने के लिए साधन/संसाधन नहीं होते। यही कारण है कि ऐसे कर्तव्यों पर तैनात सरकारी अधिकारियों पर कानूनी प्रक्रिया का पालन करने और ऐसे नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने का भारी दायित्व है। यह एक संवैधानिक कर्तव्य है।
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बंबई उच्च न्यायालय ने कहा कि यह काफी आश्चर्यजनक है कि राज्य सरकार सुमित्रा श्रीधर खाने को मुआवजा देने के अपने अनिवार्य कर्तव्य से बचना चाहती है। कोर्ट ने घोषणा की कि खाने अपनी भूमि के अधिग्रहण के लिए मुआवजे की हकदार हैं तथा सरकार को निर्देश दिया कि वह उन्हें देय मुआवजे की गणना करे तथा चार महीने के भीतर ब्याज सहित राशि आवंटित करे।
कोर्ट ने इसमें यह भी कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता के संवैधानिक अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन हुआ है, इसलिए न्याय के हित में यह उचित और आवश्यक है कि सरकार को उसे कानूनी खर्च के लिए 25,000 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया जाए।