माधवराव सिंधिया की जयंती (सोर्स: सोशल मीडिया)
नवभारत डिजिटल डेस्क: भारत की राजनीति में कई ऐसे नेता है जिनका परिवार किसी पार्टी और वो किसी और पार्टी में। लेकिन ऐसा माना जाता है कि अगर किसी नेता ने पार्टी की स्थापना की है तो उसका बेटा या बेटी उसी पार्टी में आगे चलकर बड़ा नेता बनता है। मगर आज हम जिस शख्सियत की बात कर रहे है उनकी माता ने भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी पार्टी की नींव रखी लेकिन वे अपनी मां से बगावत करके कांग्रेस में शामिल हो गए।
जी हां हम बात कर रहे ग्वालियर के महाराज माधवराव सिंधिया की। आज यानी 10 मार्च को उनकी 80वीं जयंती है। साल 1961 में पिता जीवाजीराव सिंधिया की मृत्यु के बाद ग्वालियर के महाराज बने थे। उन्होंने जनसंघ से अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी।
माधवराव सिंधिया का जन्म 10 मार्च 1945 को मुंबई में हुआ। उनकी शुरुआती पढ़ाई लिखाई ग्वालियर में हुई। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी चले गए। जब माधवराव यूके से लौटे तब तक भारत में राजशाही खत्म हो चुकी थी।
सिंधिया ने राजनीति के मैदान में भी कदम रखा। 1971 में उन्होंने पहली बार चुनाव लड़ा और जनसंघ के समर्थन से लोकसभा पहुंचे। हालांकि, 1979 में माधवराव ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया। कांग्रेस वही पार्टी थी जिससे उनकी मां और ग्वालियर राजघराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपनी राजनीति की शुरुआत की थी। बाद में राजमाता ने कांग्रेस से दूरी बना ली और फिर भारतीय जनता पार्टी की संस्थापकों में से एक बन गईं।
जब माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस से हाथ मिलाया तो उनकी मां विजयाराजे काफी नाराज हुईं. उन्होंने अपने बेटे को हर तरह से मनाने की कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। फिर मां-बेटे के रिश्ते में कड़वाहट आ गई। हालांकि, माधवराव और राजमाता के रिश्ते में कड़वाहट 1972 के आसपास ही शुरू हो गई थी।
वीर सांघवी अपनी किताब ‘ए लाइफ: माधवराव सिंधिया’ में लिखते हैं कि जब मां और बेटे के बीच कड़वाहट हद से ज्यादा बढ़ गई, तो माधवराव ने अपनी मां से कहा कि उन्हें सरदार आंग्रे और उनमें से किसी एक को चुनना होगा। राजमाता कुछ मिनट चुप रहीं और फिर उन्होंने कहा कि सरदार आंग्रे को छोड़ना मुश्किल है। फैसला हो चुका था और यह माधवराव सिंधिया के खिलाफ था।
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माधवराव गुस्से में अपनी मां के कमरे से बाहर निकल गए। राजमाता विजयराज सिंधिया की अपने बेटे माधवराव से कड़वाहट उनके जीवन के आखिरी दिनों तक बनी रही। राजमाता विजयाराजे ने अपने हाथों से 12 पन्नों की वसीयत लिखी थी, जिसमें उन्होंने अपने इकलौते बेटे माधवराव सिंधिया से अपने अंतिम संस्कार का अधिकार भी छीन लिया था। हालांकि, राजमाता की मृत्यु पर माधवराव ने ही उनकी चिता को मुखाग्नि दी थी।