केरल के राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर (फोटो सोर्स - सोशल मीडिया)
तिरुवनंतपुरम: सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में राष्ट्रपति को तीन महीने में बिल पर फैसला लेने की सलाह दी है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर राष्ट्रपति तीन महीने की समय सीमा में फैसला नहीं लेते हैं तो उन्हें इसके लिए वाजिब कारण बताना होगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के चलते राज्यपाल भी बिल को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख पाएंगे। केरल के राज्यपाल राजेंद्र आर्लेकर ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा कि अगर संविधान में संशोधन का काम भी सुप्रीम कोर्ट ही करेगा तो संसद और विधानसभाएं किसलिए हैं।
राज्यपाल के इस बयान की कांग्रेस और सीपीआईएम जमकर आलोचना कर रहीं है। कांग्रेस ने इस बयान को बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बताया और कहा कि राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ है। फैसल की आलोचना के पीछे वजह है कि अब भाजपा का ऐजेंडा खुलकर सामने आ जाएगा।
बयान पर राजनीति गरम
केरल के राज्यपाल के इस बयान पर राजनीति गरमा गई है और कांग्रेस और केरल की सत्ताधारी पार्टी सीपीआईएम ने राज्यपाल की आलोचना की है। सीपीआईएम महासचिव एमए बेबी ने राज्यपाल के बयान को अवांछित बताया और कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने आर्लेकर के बयान को दुर्भाग्यपूर्ण बताया। कोझिकोड में एक कार्यक्रम के दौरान केसी वेणुगोपाल ने कहा कि राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि अब भाजपा का एजेंडा खुलकर सामने आ जाएगा। उन्होंने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि केरल के राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ हैं।
राज्यपाल को सुप्रीम कोर्ट का फैसला स्वीकार नहीं
सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करना गलत है सीपीआईएम नेता एमए बेबी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला राष्ट्रपति समेत सभी पर लागू होगा। जब राष्ट्रपति संसद के बिल को टाल नहीं सकते तो राज्यपाल के पास वह शक्ति कैसे हो सकती है जो राष्ट्रपति के पास नहीं है। बेबी ने कहा कि सभी राज्यपालों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करना चाहिए, लेकिन केरल के राज्यपाल के बयान से साफ है कि वह इसे स्वीकार नहीं करते। उनका सुप्रीम कोर्ट की आलोचना करना गलत है।
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क्या है मामला
केरल के राज्यपाल ने कहा कि, ‘अगर संविधान संशोधन सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जाता है, तो फिर विधायिका और संसद की क्या जरूरत है। अगर सब कुछ माननीय अदालतें तय करती हैं, तो संसद की जरूरत खत्म हो जाती है। यह न्यायपालिका का अतिक्रमण है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले को बड़ी बेंच को सौंपना चाहिए था, न कि डिविजन बेंच को।