आपातकाल की साजिश! इंदिरा के साथ कौन थे वो 8 लोग, रात 12 बजे से पहले क्या हुआ था?
25 जून 1975 की रात से करीब चार घंटे पहले, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने कार्यालय में लगातार टहल रही थीं। उनके साथ वहां मौजूद थे उनके भरोसेमंद और विश्वसनीय माने जाने वाले पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे। देश में आपातकाल कैसे लागू होगा, इसे कैसे अंजाम दिया जाएगा, किन लोगों को हिरासत में लिया जाएगा और प्रेस पर सेंसरशिप किस तरह से लागू होगी—इन सभी बातों का विस्तृत प्लान तैयार किया जा रहा था। रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के अधिकारी इस सूची को बनाने में लगे थे कि किसे गिरफ्तार किया जाना है और किसे नहीं। यह सूची इंदिरा गांधी को भी दिखाई गई। जब इमरजेंसी का प्लान तैयार हो गया तो इंदिरा गांधी ने रे से राष्ट्रपति भवन चलने को कहा।
जाने-माने पत्रकार कुलदीप नैयर, जिन्हें इमरजेंसी में जेल हुई, ने अपनी किताब इमरजेंसी रीटोल्ड लिखी, जिसका हिंदी रूपांतरण इमरजेंसी की इनसाइड स्टोरी के नाम से आया। इसमें उन्होंने लिखा है कि 20 जून को इंदिरा गांधी ने एक रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि वे अंतिम सांस तक जनता की सेवा करती रहेंगी, चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हों। उन्होंने यह भी कहा कि सेवा करना उनके परिवार की परंपरा का हिस्सा रहा है। पहली बार उन्होंने किसी सार्वजनिक मंच से अपने परिवार की चर्चा की थी। मंच पर उनके साथ उनका परिवार, संजय, राजीव और उनकी विदेशी बहू सोनिया गांधी भी मौजूद थे।
इंदिरा
इंदिरा ने कहा कि बड़ी ताकतें सिर्फ उन्हें सत्ता से हटाने की कोशिश नहीं कर रही हैं, बल्कि उनका जीवन भी खतरे में डालना चाहती हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि उनके खिलाफ एक बहुत बड़ा षड्यंत्र रचा गया है।
इंदिरा गांधी के बहुत पुराने और करीबी सहयोगी सिद्धार्थ शंकर रे को तत्काल कोलकाता से बुलवाया गया था। 24 जून को बातचीत के दौरान रे ने इंदिरा को आपातकाल लगाने की सलाह दी। पीएम निवास से तुरंत किसी को संसद की लाइब्रेरी से संविधान की प्रति मंगाने भेजा गया। प्रधानमंत्री कार्यालय ने पहले ही आपातकाल की घोषणा के लिए एक नोट तैयार कर रखा था। आपातकालीन अधिकारों के तहत केंद्र सरकार किसी भी राज्य को निर्देश दे सकती थी।
संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 सहित सभी मौलिक अधिकारों को निलंबित किया जा सकता था। न्यायालयों को निर्देश दिया जा सकता था कि वे ऐसे मामलों की सुनवाई न करें जो मौलिक अधिकारों से संबंधित हों। रे को ही कई बार इमरजेंसी का ‘ब्रेन’ कहा गया है। हालांकि कुछ लेखकों का मानना है कि ये इंदिरा गांधी की अपनी सोच थी। आखिरकार, इमरजेंसी लागू करने का निर्णय ले लिया गया।
रे ने प्रधानमंत्री के सचिव पीएन धर को इस बारे में बताया। धर ने अपने टाइपिस्ट को बुला कर इमरजेंसी के प्रस्ताव को टाइप करवाया। इसके बाद आर.के. धवन वह सभी दस्तावेज लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंचे। इमरजेंसी लागू होने के करीब तीन घंटे बाद इंदिरा गांधी सोने चली गईं और देशभर में गिरफ्तारियां शुरू हो गईं। सबसे पहले जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई को गिरफ्तार किया गया।
सिद्धार्थ शंकर रे
इमरजेंसी की घोषणा को पूरी तरह गोपनीय रखा गया था। यहां तक कि जब कानून मंत्री एच.आर. गोखले को बुलाया गया तो उन्हें भी इमरजेंसी की तारीख के बारे में जानकारी नहीं थी। इमरजेंसी की सूचना केवल इंदिरा गांधी, आरके धवन, बंसीलाल, ओम मेहता, किशन चंद और रे को ही थी। बाद में संजय गांधी और इंदिरा के निजी सचिव पीएन धर को भी जानकारी दी गई।
रशीद किदवई, जिन्होंने ‘Leaders, Politicians, Citizens’ लिखी, बताते हैं कि इंदिरा गांधी अपने मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से सीधा संपर्क नहीं रखती थीं। उनके संदेशों को आरके धवन के जरिए भेजा जाता था। इसका उद्देश्य ये था कि अगर कोई बात गलत होती है तो जिम्मेदारी धवन पर डाली जा सके।
कुलदीप नैयर लिखते हैं कि विपक्ष को अंदाजा तक नहीं था कि क्या होने वाला है। लेकिन मार्क्सवादी नेता ज्योति बसु को कुछ हद तक इसकी भनक लग गई थी। उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि इंदिरा गांधी संविधान को खत्म करना चाहती हैं। इसी आशंका से उन्होंने अपने घर की खिड़कियों पर लोहे की जालियां लगवा ली थीं।
ज्योति बसु
विपक्षी नेता 25 जून को जेपी की रैली की तैयारियों में व्यस्त थे। इस रैली में प्रधानमंत्री पर सत्ता से चिपके रहने के आरोप लगाए जाने थे। कुछ नेताओं ने यहां तक कहा कि इंदिरा अब तानाशाह बन चुकी हैं। जेपी ने घोषणा की कि वे 29 जून को देशभर में आंदोलन करेंगे, जिससे इंदिरा इस्तीफा देने को मजबूर हो जाएं। जेपी ने सेना और पुलिस से भी आह्वान किया कि वे इंदिरा का आदेश न मानें। बाद में इस बयान को इंदिरा और उनके पुत्र संजय गांधी ने देशद्रोह करार दिया।
जेपी की रैली
वरिष्ठ पत्रकार और ‘द इमरजेंसी’ की लेखिका कूमी कपूर कहती हैं कि आपातकाल एक दिन में तय नहीं हुआ था। इसकी तैयारी पहले से ही शुरू हो चुकी थी। महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से नाराज युवा बेहद गुस्से में थे। वे 72 वर्षीय जयप्रकाश नारायण के पीछे शांतिपूर्ण और अनुशासित आंदोलन में शामिल हो गए थे। देश के विभिन्न हिस्सों में कांग्रेस सरकारों के विरोध में प्रदर्शन हो रहे थे। इस माहौल में 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया।
आपातकाल
समाजवादी नेता राजनारायण ने इंदिरा गांधी के चुनाव को चुनौती दी थी, आरोप लगाकर कि उन्होंने गलत तरीके अपनाए। जज ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अमान्य करार दिया। साथ ही उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने से भी अयोग्य घोषित कर दिया गया। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को आंशिक रूप से बरकरार रखा, लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति दे दी।