छत्रपति शिवाजी महाराज
नवभारत डेस्क: दक्षिण में औरंगजेब के वायसराय मिर्जा राजा सिंह ने जिम्मेदारी लिया कि वो किसी तरह शिवाजी को औरंगजेब के दरबार में भेजने के लिए मना लेंगे लेकिन इसको अंजाम देना इतना आसान नहीं था। पुरंदर के समझौते में शिवाजी ने साफ कर दिया था कि वो मुगल मंसब के लिए काम करने और शाही दरबार में जाने के लिए बाध्य नहीं हैं। इसके कुछ खास कारण भी थे। शिवाजी को औरंगजेब के बातों पर भरोसा नहीं था। वह मानते थे कि औरंगजेब अपना काम निकालने के लिए किसी भी हद तक जा सकता था।
इतिहासकार जदुनाथ सरकार अपनी पुस्तक ‘शिवाजी एंड हिज़ टाइम्स’ में इस बात का जिक्र किया है कि जय सिंह ने शिवाजी को यह उम्मीद दिलाई कि हो सकता है कि औरंगजेब से मुलाकात के बाद कि वो दक्कन में उन्हें अपना वायसराय बना दें और बीजापुर और गोलकुंडापर कब्जा करने के लिए उनके नेतृत्व में एक फौज भेजें। हालांकि, औरंगजेब ने इस तरह का कोई वादा नहीं किया था।
शिवाजी मन ही मन यह उम्मीद भी कर रहे थे कि औरंगज़ेब से उनकी मुलाकात के बाद उन्हें बीजापुर से चौथ वसूलने की शाही अनुमति मिल जाएगी। मराठा दरबार में जब इस विषय पर चर्चा हुई तो यह तय किया गया कि शिवाजी को औरंगजेब से मिलने आगरा जाना चाहिए। शिवाजी अपनी मां जीजाबाई को राज्य का संरक्षक बनाकर औरंगजेब से मिलने आगरा के लिए निकल पड़े। जय सिंह ने आगरा में मौजूद अपने बेटे कुमार राम सिंह को शिवाजी की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंप दी।
आगरा की यात्रा में आने वाले खर्च के लिए औरंगजेब ने एक लाख रुपये पेशगी भिजवाने की व्यवस्था की। रास्ते में शिवाजी को औरंगजेब का एक पत्र मिला। मशहूर इतिहासकार एसएम पगाड़ी ने अपनी किताब ‘छत्रपति शिवाजी’ में लिखा है कि पत्र का मज़मून था कि आप यहां बिना किसी संकोच और डर के पधारें। अपने मन में कोई चिंता न रखें। नौ मई, 1666 को शिवाजी आगरा के बाहरी इलाके में पहुंच चुके थे, तय हुआ कि 12 मई को उनकी औरंगज़ेब से मुलाकात कराई जाएगी। राम सिंह को हुक्म हुआ कि वो शिवाजी को आगरा शहर की चारदीवारी से बाहर जयपुर सराय में ठहराएं। जैसे ही शिवाजी जयपुर निवास पहुंचे, घुड़सवारों की एक टुकड़ी ने निवास को चारों तरफ़ से घेर लिया। जब कुछ दिन बीत गए और सैनिक चुपचाप शिवाजी की निगरानी करते रहे तो यह साफ़ हो गया कि औरंगज़ेब की मंशा शिवाजी को मारने की नहीं थी।
डेनिस किंकेड की किताब ‘शिवाजी द ग्रेट रेबेल’ के मुताबिक, शिवाजी को वो भवन छोड़ने की मनाही थी, जहां वो रह रहे थे लेकिन तब भी औरंगज़ेब उन्हें गाहेबगाहे विनम्र संदेश भेजते रहे। शिवाजी ने बहाना किया कि वो बीमार हैं। मुगल पहरेदारों को उनकी कराहें सुनाई देने लगी। अपने को ठीक करने के प्रयास में वो अपने निवास के बाहर ब्राह्मणों और साधुओं को हर शाम मिठाइयां और फल भिजवाने लगे। बाहर तैनात सैनिकों ने कुछ दिनों तक तो बाहर जाने वाले सामान की तलाशी ली लेकिन फिर उन्होंने उसकी तरफ़ ध्यान देना बंद कर दिया।
दूसरी तरफ़ शिवाजी के सौतेले भाई हीरोजी फ़रजांद जिनकी शक्ल उनसे मिलती जुलती थी, उनके कपड़े और उनका मोतियों का हार पहन कर उनकी पलंग पर लेट गए। उन्होंने कंबल से अपने सारे शरीर को ढ़क लिया। उनका सिर्फ़ एक हाथ दिखाई देता रहा, जिसमें उन्होंने शिवाजी के सोने के कड़े पहन रखे थे। शिवाजी और उनके बेटे संभाजी फलों की एक टोकरी में बैठे, जिसे मज़दूर बांस के सहारे कंधे पर उठाकर भवन से बाहर ले आए। निगरानी कर रहे सैनिकों ने उन टोकरियों की तलाशी लेने की ज़रूरत नहीं महसूस की।
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इन टोकरियों को शहर के एकांत वाले इलाके में ले जाया गया। वहां से मज़दूरों को वापस भेज दिया गया. शिवाजी और उनके बेटे टोकरियों से निकलकर आगरा से छह मील दूर एक गाँव में पहुंचे जहाँ उनके मुख्य न्यायाधीथ नीरजी रावजी उनका इंतज़ार कर रहे थे।