
विदेशी सपनों की कीमत दिखाती डंकी, जो जज नहीं करती बल्कि समझाती है
Rajkumar Hirani Dunki: राजकुमार हिरानी की फिल्म डंकी को रिलीज़ हुए दो साल पूरे हो चुके हैं, लेकिन यह फिल्म आज भी उतनी ही असरदार और प्रासंगिक लगती है। डंकी सिर्फ एक फिल्म नहीं थी, बल्कि एक संवेदनशील सामाजिक टिप्पणी थी, जिसने अवैध इमीग्रेशन जैसे गंभीर मुद्दे को इंसानी नजरिए से देखने की कोशिश की। हिरानी ने हमेशा की तरह इस बार भी ह्यूमर और भावनाओं के जरिए एक गहरी बात कही, जो सीधे दिल को छू जाती है।
फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह रही कि इसने अवैध इमीग्रेशन को अपराध या आंकड़ों की भाषा में नहीं, बल्कि मजबूरी और सपनों की कहानी के रूप में पेश किया। डंकी यह सवाल उठाती है कि आखिर लोग अपना घर, परिवार और देश छोड़कर इतना जोखिम भरा रास्ता क्यों चुनते हैं। यह फिल्म जज नहीं करती, बल्कि समझने की कोशिश करती है, और यही इसे खास बनाती है।
डंकी ने ‘विदेश जाने के सपने’ की उस चमक-दमक को भी तोड़ा, जिसे अक्सर सोशल मीडिया और समाज में दिखाया जाता है। फिल्म बताती है कि बेहतर जिंदगी की तलाश में इंसान को अकेलापन, अपनों से दूरी और मानसिक संघर्ष जैसी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। नई जगह, नई भाषा और नई संस्कृति में घुलने की पीड़ा को फिल्म बेहद सादगी से दिखाती है।
शाहरुख खान की फिल्म में दोस्ती को भी खास अहमियत दी गई है। अनजान देश और मुश्किल हालात में दोस्त ही एक-दूसरे का सहारा बनते हैं। डंकी में दोस्ती सिर्फ साथ हंसने का जरिया नहीं, बल्कि जीने की ताकत बनकर सामने आती है। यही रिश्ते किरदारों को टूटने नहीं देते। एक और अहम पहलू यह है कि फिल्म उन परिवारों की पीड़ा भी दिखाती है, जो पीछे छूट जाते हैं। माता-पिता, जीवनसाथी और अपने, जो हर दिन उम्मीद और डर के बीच जीते हैं। डंकी यह साफ करती है कि पलायन सिर्फ एक इंसान की कहानी नहीं होती, बल्कि कई जिंदगियों को प्रभावित करता है।
भारी विषय के बावजूद फिल्म में उम्मीद और इंसानियत की कमी नहीं है। राजकुमार हिरानी का सिग्नेचर ह्यूमर दर्द को हल्का करता है, लेकिन संदेश की गहराई बनाए रखता है। दो साल बाद भी डंकी इसलिए याद की जाती है, क्योंकि यह हमें सोचने पर मजबूर करती है और यह एहसास दिलाती है कि सबसे मुश्किल हालात में भी इंसानियत जिंदा रह सकती है।






