पाकिस्तान ने ड्रैगन से बढ़ाई दूरी, फोटो (सो. सोशल मीडिया)
South Asia Tensions: चीन की विदेश नीति इन दिनों दिलचस्प मोड़ पर है। कभी बीजिंग के “भरोसेमंद साथी” रहे पाकिस्तान और सऊदी अरब अब धीरे-धीरे उसके रणनीतिक घेरे से बाहर होते दिख रहे हैं। पहले पाकिस्तान से रिश्तों में दरार और अब सऊदी अरब से तेल आयात में कमी ये सब संकेत हैं कि ड्रैगन अपनी प्राथमिकताएं बदल रहा है।
कभी पाकिस्तान और चीन के रिश्तों को “हर मौसम के दोस्ती” कहा जाता था। बीजिंग ने अरबों डॉलर का निवेश चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) में किया था, जो राष्ट्रपति शी जिनपिंग की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) की रीढ़ माना जाता था। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। 2022 के बाद से चीन ने कई बड़े प्रोजेक्टों से हाथ खींच लिया। ML-1 रेलवे लाइन, काराकोरम हाइवे और ग्वादर पोर्ट जैसे प्रोजेक्ट या तो ठप हैं या फिर अधर में लटके हुए हैं।
इस बदलाव की बड़ी वजह पाकिस्तान की राजनीतिक अस्थिरता और सुरक्षा खतरे हैं। ग्वादर, बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में चीनी इंजीनियरों पर हुए हमलों के बाद बीजिंग ने निवेश पर रोक लगा दी। चीन ने ML-1 रेलवे प्रोजेक्ट की लागत 10 अरब डॉलर से घटाकर लगभग 6 अरब डॉलर कर दी है।
पाकिस्तान ने हाल के महीनों में अमेरिका से रिश्ते सुधारने की कोशिश की है। एफ-16 पुर्जों के सौदे और आर्थिक सहायता के संकेतों ने बीजिंग को असहज कर दिया। चीन की नीति साफ है “या तो पूरी तरह हमारे साथ रहो, या फिर बाहर।” इसी कारण उसने पाकिस्तान के साथ नए प्रोजेक्टों और सैन्य अभ्यासों को रोक दिया है।
रायटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, सऊदी अरब से चीन का तेल आयात लगातार घट रहा है। नवंबर में बीजिंग केवल 36 मिलियन बैरल तेल खरीदेगा जो पिछले महीने से काफी कम है। यह केवल आर्थिक फैसला नहीं, बल्कि राजनीतिक संकेत है। चीन को लगता है कि रियाद धीरे-धीरे फिर से अमेरिका के खेमे में लौट रहा है।
इजरायल-हमास संघर्ष के दौरान सऊदी अरब ने अमेरिका के साथ संतुलित रुख अपनाया, जिससे चीन का मध्य-पूर्वी प्रभाव कमजोर पड़ा। अब चीन रूस और ईरान से अधिक तेल खरीद रहा है, ताकि सऊदी को संदेश मिल सके कि बीजिंग पर भरोसा एकतरफा नहीं रहेगा।
दिलचस्प यह है कि पाकिस्तान और सऊदी अरब दोनों ने हाल के वर्षों में भारत के खिलाफ मोर्चाबंदी की थी। पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया, जबकि सऊदी अरब ने ओआईसी में इस्लामाबाद का समर्थन किया। लेकिन अब जब चीन इन दोनों देशों से दूरी बना रहा है, तो यह भारत की कूटनीतिक जीत मानी जा रही है। भारत ने पश्चिमी देशों के साथ अपने संबंध मजबूत किए हैं और अरब दुनिया में भी उसका प्रभाव लगातार बढ़ रहा है।
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बीजिंग अब यह समझता दिख रहा है कि जिन देशों पर उसने भरोसा किया था, वे दीर्घकालिक रणनीतिक साझेदार नहीं हैं। ड्रैगन का यह बदला हुआ रुख एशिया में शक्ति संतुलन को नई दिशा दे सकता है।