
यूपी की कमलापति त्रिपाठी सरकार में मंत्री पद की शपथ लेते नारायण दत्त तिवारी (सोर्स- सोशल मीडिया)
Brahmin in UP Politics: उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर जातिगत समीकरणों ने जबरदस्त हलचल मचा दी है। राजधानी लखनऊ में भारतीय जनता पार्टी के ब्राह्मण विधायकों की एक बैठक ने पार्टी हाईकमान की नींद उड़ा दी है। विधानसभा के शीतकालीन सत्र के बीच हुई इस बैठक ने सियासी गलियारों में नई चर्चा छेड़ दी है। मामला इतना बढ़ गया कि इस बैठक के बाद यूपी के डिप्टी सीएम बृजेश पाठक को दिल्ली तक दौड़ लगानी पड़ी। वहीं, डैमेज कंट्रोल के लिए आनन-फानन में यूपी बीजेपी के नए प्रदेश अध्यक्ष पंकज चौधरी को सामने आना पड़ा और उन्होंने ऐसी बैठकों को लेकर सख्त चेतावनी जारी कर दी।
इस बैठक ने न केवल सत्ताधारी दल के भीतर, बल्कि विपक्षी खेमे में भी खलबली मचा दी है। जहां एक ओर भाजपा नेतृत्व इसे अनुशासनहीनता और पार्टी संविधान के खिलाफ मान रहा है, वहीं समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने इसे भाजपा की दोहरी नीति करार दिया है। विपक्ष का तीखा सवाल है कि जब ठाकुर, कुर्मी या ओबीसी समाज के नेता बैठक करते हैं तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होती, लेकिन जब ब्राह्मण विधायकों ने अपने दुख-दर्द साझा करने के लिए बैठक की, तो बीजेपी नेतृत्व को इतनी दिक्कत क्यों हो रही है? यह घटना यूपी की जातिगत राजनीति की गहरी जड़ों और ब्राह्मण समाज की वर्तमान स्थिति को उजागर करती है।
राजधानी लखनऊ में 23 दिसंबर को विधानमंडल के शीतकालीन सत्र के दौरान यह चर्चित बैठक हुई थी। आधिकारिक तौर पर बताया गया कि यह कुशीनगर के बीजेपी विधायक पीएन पाठक की पत्नी के जन्मदिन का जश्न था, जिसके लिए उनके लखनऊ आवास पर सहभोज रखा गया था। लेकिन इस ‘लिट्टी-चोखा’ भोज में पूर्वांचल और बुंदेलखंड के करीब 45 से 50 ब्राह्मण विधायक शामिल हुए। सबसे खास बात यह रही कि इस बैठक में केवल भाजपा ही नहीं, बल्कि दूसरी पार्टियों के भी ब्राह्मण विधायक शामिल हुए थे।
ब्राह्मण विधायकों की बैठक (सोर्स- सोशल मीडिया)
इतनी बड़ी संख्या में एक ही जाति के विधायकों के जुटान ने योगी सरकार में हलचल पैदा कर दी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मामला इतना गंभीर हो गया कि मुख्यमंत्री के ओएसडी सरवन बघेल ने खुद विधायक पीएन पाठक को फोन करके मामले की जानकारी ली। हालांकि, पाठक ने सफाई दी कि यह कोई राजनीतिक बैठक नहीं थी। कहा तो यहां तक जा रहा है कि आरएसएस और भाजपा के वरिष्ठ पदाधिकारी भी इस मामले को शांत कराने में जुट गए थे।
बैठक के बाद यूपी बीजेपी अध्यक्ष पंकज चौधरी ने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा कि इस तरह की बैठकें बीजेपी के संविधान में नहीं हैं। पार्टी की तरफ से एक प्रेस रिलीज जारी कर कहा गया कि विधानसभा सत्र के दौरान कुछ जनप्रतिनिधियों द्वारा विशेष भोज का आयोजन किया गया था, जिसमें अपने समाज को लेकर चर्चा की गई। पार्टी ने विधायकों से बातचीत कर स्पष्ट कर दिया है कि ऐसी कोई भी गतिविधि भाजपा की संवैधानिक परंपराओं के अनुकूल नहीं है। भविष्य के लिए चेतावनी दी गई है कि अगर किसी जनप्रतिनिधि ने ऐसा दोहराया, तो इसे अनुशासनहीनता माना जाएगा।
हालांकि, डिप्टी सीएम बृजेश पाठक ने इस मामले को संभालने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि देखने वालों का चश्मा गलत है, लेकिन उद्देश्य गलत नहीं हैं। लोग मिलते हैं और मिलना भी चाहिए। अगर कोई विधायक किसी के जन्मदिन, सालगिरह या लिट्टी-चोखा खाने चला जाए, तो उसे जातिगत बैठक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वहीं, पूर्व भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह ने विधायकों का समर्थन करते हुए कहा कि चार क्षत्रिय मिल जाएं या चार ब्राह्मण, साथ बैठकर चर्चा करें तो इसमें कुछ गलत नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं इस बैठक का स्वागत करता हूं और इसे गलत नहीं मानता। सरकार में मंत्री धर्मवीर प्रजापति और सुनील शर्मा ने भी बचाव करते हुए कहा कि सत्र के दौरान विधायक अक्सर साथ बैठते हैं और इसका कोई राजनीतिक मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए। उन्होंने दावा किया कि बैठक में राष्ट्र, सनातन और पार्टी को मजबूत करने की ही चर्चा हुई होगी।
भाजपा के भीतर मचे इस घमासान पर विपक्ष ने भी जमकर निशाना साधा है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने शायराना अंदाज में तंज कसते हुए कहा कि अपनों की महफिल सजे तो जनाब मेहरबान, और दूसरों को भेज रहे चेतावनी का फरमान। शिवपाल यादव ने कहा कि भाजपा के लोग जातियों में बांटते हैं। उन्होंने नाराज ब्राह्मण विधायकों को सपा में आने का न्योता देते हुए कहा कि यहां उन्हें पूरा सम्मान मिलेगा।
क्षत्रिय नेताओं की कुटुंब परिवार बैठक (सोर्स- सोशल मीडिया)
सपा नेता पवन पांडे ने दावा किया कि ब्राह्मण विधायकों ने इकट्ठा होकर अपना दुख-दर्द साझा किया और रोना रोया कि दरोगा-कोतवाल उनकी सुन नहीं रहे और सरकार में वे अपमानित हो रहे हैं। यह बात ऊपर के लोगों को बुरी लगी, इसलिए अब उन्हें डांटा जा रहा है। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अजय राय ने भी कहा कि भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने ब्राह्मण विधायकों का अपमान किया है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब बाकी जातियों की बैठक हुई तो कार्रवाई की बात नहीं की गई, लेकिन ब्राह्मण समाज को विशेष रूप से टारगेट किया जा रहा है।
विपक्ष के आरोपों में दम इसलिए भी नजर आता है क्योंकि पिछले दिनों क्षत्रिय विधायकों ने ‘कुटुंब परिवार’ के नाम पर दो बार बैठक की थीं, जिसमें प्रदेश सरकार के मंत्री जयवीर सिंह और दयाशंकर सिंह भी शामिल हुए थे, लेकिन तब भाजपा ने कोई आपत्ति नहीं जताई। इसी तरह, पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेटे राजबीर सिंह राजू भैया ने लोध समाज का सम्मेलन किया और कुर्मी बौद्धिक विचार मंच के बैनर तले कुर्मी विधायकों ने बैठक की, तब भी पार्टी ने चुप्पी साधे रखी। ब्राह्मण विधायकों की बैठक में यह दर्द छलका कि कई जातियां ताकतवर हो गई हैं, लेकिन ब्राह्मण पिछड़ गया है। कास्ट पॉलिटिक्स में उनकी आवाज गुम होती जा रही है और उनके समाज से उपमुख्यमंत्री होने के बावजूद उन्हें वह पावर नहीं है जो होनी चाहिए।
उत्तर प्रदेश के इतिहास पर नजर डालें तो ब्राह्मणों की यह छटपटाहट बेबुनियाद नहीं है। यूपी में अब तक कुल 21 मुख्यमंत्री हुए हैं, जिनमें से 6 ब्राह्मण समाज से रहे हैं। यानी यूपी को करीब 20 साल तक ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों ने चलाया। 1946 से 1989 तक के दौर को ‘यूपी का ब्राह्मण काल’ कहा जा सकता है।
| पार्टी | किस जाति के मुख्यमंत्री बनाए |
|---|---|
| कांग्रेस | 6 ब्राह्मण, 3 ठाकुर, 1 बनिया |
| बीजेपी | 2 ठाकुर, 1 बनिया, 1 लोधी राजपूत |
| जनता पार्टी | 1 यादव, 1 बनिया |
| समाजवादी पार्टी | 2 यादव |
| बहुजन समाज पार्टी | 1 अनुसूचित जाति |
| भारतीय क्रांति दल | 1 जाट |
| जनता दल | 1 यादव |
आजादी की लड़ाई के समय 1925 में जब काकोरी कांड हुआ था, तब यूपी के लड़कों की पैरवी के लिए कोई तैयार नहीं था। तब गोविंद बल्लभ पंत सामने आए थे, जो बाद में यूपी के पहले ब्राह्मण नेता और मुख्यमंत्री बने। उनके अलावा सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा और श्रीपति मिश्रा जैसे ब्राह्मण नेताओं ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। नारायण दत्त तिवारी यूपी के आखिरी ब्राह्मण मुख्यमंत्री थे।
लेकिन 1989 के बाद स्थिति पूरी तरह बदल गई। इसे ‘ब्राह्मण शून्य काल’ कहा जा सकता है, क्योंकि पिछले 32 सालों में एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना है। इसकी नींव 1980 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने रखी थी। 13 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह, जो खुद ठाकुर थे, ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं, जिसने पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया।
| जाति | कितने मुख्यमंत्री | प्रतिशत (%) | कितने साल रहे |
|---|---|---|---|
| ब्राह्मण | 6 | 28.5% | 20 |
| ठाकुर | 5 | 23.5% | 12 |
| यादव | 3 | 14% | 15 |
| बनिया | 3 | 14% | 6 |
| अनुसूचित जाति | 1 | 4.5% | 7 |
| कायस्थ | 1 | 4.5% | 6 |
| जाट | 1 | 4.5% | 1.5 |
| लोधी | 1 | 4.5% | 3.5 |
इसके बाद यूपी की ओबीसी और अनुसूचित जाति के नेताओं का समय आ गया। 1989 के बाद से अब तक प्रदेश में भाजपा ने चार बार सरकार बनाई, जिसमें उसने दो ठाकुर, एक बनिया और एक लोधी राजपूत को मुख्यमंत्री बनाया। सपा ने दोनों बार यादव और बसपा ने अनुसूचित जाति से मुख्यमंत्री चुना। आज स्थिति यह है कि यूपी की राजनीति में कोई ऐसा बड़ा ब्राह्मण चेहरा नहीं है जो मुख्यमंत्री की दौड़ में दिखाई दे।
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2007 में ब्राह्मणों ने बसपा का साथ दिया, 2009 में एससी-एसटी एक्ट के मुकदमों से नाराज होकर 2012 में वे सपा के साथ गए। यादववाद के विरोध में 2017 में उन्होंने भाजपा को प्रचंड समर्थन दिया। 2017 में कांग्रेस ने शीला दीक्षित को आगे करके एक कोशिश की थी, लेकिन गठबंधन के चलते वह रास्ता भी बंद हो गया। अब भाजपा के भीतर उठी यह आवाज संकेत दे रही है कि ब्राह्मण समाज अपनी राजनीतिक उपेक्षा से आहत है और लिट्टी-चोखा भोज के बहाने अपनी एकजुटता और ताकत का एहसास करा रहा है।






