
मेजर ध्यानचंद (फोटो- सोशल मीडिया)
Major Dhyan Chand Death Anniversary: हॉकी के जादूगर कहलाने वाले मेजर ध्यानचंद ने भारत को तीन ओलंपिक स्वर्ण दिलाने में अहम योगदान दिया। उनके शानदार बॉल कंट्रोल और गोल करने की अनोखी क्षमता ने दुनिया भर के दर्शकों और खिलाड़ियों को चकित कर दिया था। आज मेजर ध्यानचंद की पुण्यतिथि मनाई जा रही है। मेजर ध्यानचंद का निधन 3 दिसंबर 1979 को हुआ था। आज उनकी 46वीं पुण्यतिथि मनाई जा रही है। आज आपको बताएंगे कि कैसे उन्होंने हॉकी में भारत को सफलता दिलाई।
3 दिसंबर 1979 को लिवर कैंसर से जूझते हुए ध्यानचंद का निधन दिल्ली के एम्स अस्पताल में हुआ। बाद में उनका पार्थिव शरीर झांसी लाया गया, जहां हजारों लोग अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़े। हीरोज हॉकी मैदान में उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई। 29 अगस्त 1905 को प्रयागराज में जन्मे ध्यानचंद के पिता समेश्वर दत्त सिंह ब्रिटिश भारतीय सेना में कार्यरत थे। पिता की राह पर चलते हुए ध्यानचंद भी मात्र 16 वर्ष की उम्र में सेना में शामिल हो गए। यहीं रहते हुए उन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया और जल्द ही अपनी प्रतिभा से सबका ध्यान आकर्षित करने लगे।
1922 से 1926 के बीच रेजिमेंटल मैचों में उनके खेल ने लोगों को बेहद प्रभावित किया। इसी दौरान उन्हें न्यूजीलैंड दौरे के लिए सेना की टीम में मौका मिला। इस दौरे में ध्यानचंद के उत्कृष्ट खेल की बदौलत सेना ने 18 मैच जीते, दो मुकाबले बराबरी पर रहे और सिर्फ एक मैच में टीम को हार मिली। उनके शानदार प्रदर्शन से ब्रिटिश आर्मी बेहद प्रसन्न हुई और पुरस्कार स्वरूप उन्हें ‘लांस नायक’ के पद पर पदोन्नति दी गई। लगभग 34 वर्षों तक देश की सेवा करते हुए उन्होंने 1956 में ‘लेफ्टिनेंट’ के पद से सेवानिवृत्ति ली।
1928 के ओलंपिक के लिए जब भारतीय हॉकी टीम का चयन शुरू हुआ, तो ध्यानचंद को ट्रायल में बुलाया गया। वे टीम में चुने गए और फिर पांच मैचों में 14 गोल दागे। भारत ने इस ओलंपिक में अपराजित रहते हुए स्वर्ण पदक जीता। 1932 और 1936 के ओलंपिक में भी ध्यानचंद ने भारत को स्वर्ण दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1936 के बर्लिन ओलंपिक में भारत ने जर्मनी को 8–1 से पराजित किया। इस प्रदर्शन से प्रभावित होकर स्वयं हिटलर ने ध्यानचंद को जर्मन सेना में उच्च पद का प्रस्ताव दिया, मगर ध्यानचंद ने गर्वपूर्वक इसे ठुकराया और देश के प्रति अपनी निष्ठा प्रदर्शित की।
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दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1948 ओलंपिक का समय आया, तब तक ध्यानचंद की उम्र 40 वर्ष से अधिक हो चुकी थी। उन्होंने स्वयं टीम में शामिल होने से मना कर दिया और युवा खिलाड़ियों को अवसर देने की बात कही। लगभग दो दशकों से अधिक समय तक भारत के लिए खेलते हुए ध्यानचंद ने 400 से ज्यादा गोल किए।
खेल में उनके अद्वितीय योगदान के लिए उन्हें ‘पद्म भूषण’ सम्मान से नवाजा गया। आज देश का सर्वोच्च खेल पुरस्कार ‘मेजर ध्यानचंद खेल रत्न’ उनके नाम पर दिया जाता है और उनका जन्मदिन ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।






