
प्रतीकात्मक तस्वीर ( सोर्स : सोशल मीडिया )
Nuclear Sector Investment Navbharat Special: शांति विधेयक के पारित किए जाने के दो दिन बाद 18 दिसंबर को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 3000 पन्नों से अधिक के नेशनल डिफेंस ऑथराइजेशन एक्ट (एनडीएए) पर हस्ताक्षर किए। इसमें अक्सर भारत का जिक्र सुरक्षा मामलों के संदर्भ में किया जाता है।
2016 के बाद पहली बार पृष्ठ 1912 पर 2008 के भारत-अमेरिका परमाणु समझौते और परमाणु नागरिक क्षतिपूर्ति नियमों का उल्लेख किया गया है। कहा गया है कि अमेरिकी विदेश मंत्री अमेरिका-भारत सुरक्षा संवाद के अंतर्गत भारत सरकार के साथ मिलकर एक संयुक्त परामर्श तंत्र स्थापित करेंगे व उसे बनाए रखेंगे।
शांति कानून, भारत के परमाणु सेक्टर में निजी हिस्सेदारी की अनुमति देता है जिसमें क्षतिपूर्ति नियमों को आसान कर दिया गया है और परमाणु दुर्घटना के लिए ऑपरेटर की देयता (लायबिलिटी) को आसान करते हुए उसकी सीमा 3,000 करोड़ रुपये निर्धारित की गई है। इस परिवर्तन से परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व के संदर्भमें भारत विएना कन्वेंशन के करीब हो गया है।
विपक्ष ने सरकार की आलोचना करते हुए शांति अधिनियम को ‘विक्रेता-संचालित’ बताया है। दूसरे शब्दों में सीएलएनडी एक्ट 2010 के मुख्य प्रावधानों की तिलांजलि देकर शांति विधेयक जल्दबाजी में इसलिए लाया गया ताकि ‘कभी अच्छे दोस्त रहे (ट्रंप) से पुनः शांति स्थापित की जा सके। इससे भारत के परमाणु सेक्टर में विदेशी फं के निवेश की संभावना बढ़ जाती है। वर्तमान में सिर्फ पब्लिक सेक्टर ही भारत में परमाणु पावर प्लांट्स बना और चला सकता है।
विपक्ष ने लोकसभा से वॉकआउट करते हुए अनेक बार आग्रह किया कि शांति विधेयक (सस्टेनेबल हार्नेसिंग एंड एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया बिल) को संसदीय समिति के पास समीक्षा के लिए भेज दिया जाए, लेकिन सरकार ने इसे जल्दबाजी में पारित करा दिया और अब यह परमाणु ऊर्जा कानून, 1962 व परमाणु क्षति के लिए नागरिक दायित्व अधिनियम, 2010 (सीएलएनडीए) की जगह परमाणु गतिविधि का संचालन करेगा।
भारत की योजना अपनी वर्तमान परमाणु क्षमता 8.8 जीडब्लू को बढ़ाकर 2047 तक 100 जीडब्लू करने की है। इस तरह परमाणु शक्ति से अधिक बिजली बनानी है, जो फिलहाल 3 प्रतिशत है। परमाणु प्लांट्स चलाने के हर पहलू में अत्यधिक सावधानी व पाबंदी इसलिए भी बरती जाती है ताकि श्री माइल आइलैंड (1979), चेर्नोबिल (1986), फुकुशीमा (2011) जैसी दुर्घटनाओं से बचा जा सके।
वर्तमान में वैश्विक सहमति यह है कि अगर कोई दुर्घटना घटित होती है, तो प्लांट ऑपरेटर को नुकसान के समतुल्य पीड़ितों को मुआवजा आवश्यक रूप से देना होगा। सहमति यह है कि पीड़ितों को मुआवजा तुरंत देना होगा, बिना यह सुनिश्चित किए कि दुर्घटना का कारण क्या था और उसके लिए कौन जिम्मेदार है? लेकिन इसके बाद अगर प्लांट ऑपरेटर यह स्थापित कर देता है कि गलती उसके प्रबंधकों की नहीं, बल्कि खराब उपकरणों की थी, जिससे दुर्घटना हुई, तो वह सप्लायर से भरपाई कर सकता है।
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भारत-अमेरिका 2008 समझौते के तहत भारत को यूरेनियम व अंतरराष्ट्रीय परमाणु टेक्नोलॉजी हासिल करने की अनुमति थी, लेकिन इसके बावजूद 1974 व 1998 के परमाणु परीक्षणों के कारण अमेरिका व फ्रांस के रिएक्टर निर्माता संकोच करते थे।
क्योंकि ‘सप्लायर’ के रूप में दुर्घटना की स्थिति में उन्हें अरबों डॉलर मुआवजे में देने पड़ सकते थे। ‘सप्लायर’ को हटाने से यह ‘समस्या’ ‘लुप्त’ हो जाती है। भारत के सभी प्लांट्स वर्तमान में 3,000 एमडब्लू या उससे कम के हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने परमाणु लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भारत स्माल मॉड्युलर रिएक्टर्स (एसएमआर) पर निर्भर होना चाहता है।
नवभारत लेख- नरेंद्र शर्मा के द्वारा






