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नवभारत डेस्क: अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि किसी अन्य व्यक्ति के शब्दों से समाज में उसकी बदनामी हुई है, तो भारत के संविधान के तहत उसके पास न्याय पाने के दो कानूनी विकल्प उपलब्ध हैं। वह संबंधित व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक या सिविल मामला दर्ज कर सकता है और फिर अदालत तय करेगी कि उसकी मानहानि वास्तव में हुई या नहीं, लेकिन उसे किसी भी सूरत में कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। इसलिए स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा के वायरल हुए व्यंग्य से महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की मानहानि हुई या नहीं, इसका फैसला अदालत करेंगी। अगर कामरा दोषी हैं, तो भी उन्हें सजा अदालत ही सुनाएगी।
कानून और लोकतंत्र का यही तकाजा है। लेकिन हुआ क्या? जैसे ही कामरा का राजनीतिक व्यंग्य वायरल हुआ, तो शिंदे शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने उस होटल के स्टूडियों में जाकर तोड़फोड़ की, गालीगलौज की और हंगामा किया, जहां कामरा ने अपना वीडियो शूट किया था। इन असामाजिक तत्वों ने कामरा को फोन पर मुंह काला करने से लेकर जान से मारने तक की धमकी दी। बीएमसी ने संबंधित होटल पर बिना नोटिस के बुलडोजर कार्यवाही की, यह कहते हुए कि उसने होटल के अवैध निर्मित हिस्से को गिराया है।
प्रश्न यह है कि तथाकथित अवैध निर्माण कामरा प्रकरण के तुरंत बाद ही क्यों गिराया गया? क्या इसके बारे में बीएमसी को पहले से मालूम नहीं था? अगर मालूम था तो उसने कार्रवाई क्यों नहीं की थी? क्या उसको कामरा प्रकरण होने की प्रतीक्षा थी? खार पुलिस ने 12 शिव सैनिकों को स्टूडियो में तोड़फोड़ करने के आरोप में हिरासत में अवश्य लिया है, लेकिन वीडियो में तो इससे कहीं अधिक लोग तोड़फोड़ करते हुए नजर आ रहे हैं।
महाराष्ट्र में एक सप्ताह के दौरान सुप्रीम कोर्ट के नवम्बर 2024 के आदेश का 2 बार खुला उल्लंघन देखने को मिला है। 15 दिनों के कारण बताओ नोटिस के बिना किसी इमारत को नहीं गिराया जा सकता। मुंबई के होटल के तथाकथित अवैध निर्माण को तो कामरा के वीडियो वायरल होने के अगले दिन ही तोड़ दिया गया। यह किस किस्म का प्रशासन चल रहा है जिसे नियमों, कानूनों और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की कोई परवाह नहीं है।
जो मन में आता है, वह कर दिया जाता है। यह लोकतंत्र है या तानाशाही? तोड़फोड़ व त्वरित ‘कानूनी कार्रवाई’ से लेखकों, पत्रकारों, कॉमेडियनों आदि को यह संदेश देना है कि वह तोल-मोलकर बोलें, सरकार से कुछ न कहें और केवल विपक्ष से सवाल करें। इसके अतिरिक्त होटल या स्टूडियो मालिकों को भी संदेश दिया जा रहा है कि वे सरकार से सवाल करने वाले व्यक्तियों को अपनी जगह न दें। यह एक तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नियंत्रित करने का प्रयास है।
इसमें शक नहीं है कि राजनीति हमेशा से ही हास्य व्यंग्य के लिए उपजाऊ मसाला प्रदान करती रही है। दुनियाभर के खुले लोकतंत्रों में लोग अपने सियासी नेताओं की कीमत पर खुलकर हंसते रहे हैं। हमारे यहां भी हरिशंकर परसाई या केपी सक्सेना के राजनीतिक व्यंग्यबाणों ने लोगों को खूब गुदगुदाया है। लेकिन यह गुजरे जमाने की बात-सी लगती है। आज के अधिकतर नेता छुईमुई हो गए हैं। मुद्दा यह है कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत ‘तार्किक पाबंदियों’ के भीतर सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।
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उद्धव ठाकरे की सेना को कामरा के लतीफों में तर्क नजर आता है, लेकिन शिंदे की सेना को आपत्ति है। ठीक है। हर किसी को अपने तौर पर फैसला करने का अधिकार है। लेकिन किसी को भी कानून अपने हाथ में लेने का हक नहीं है। शिंदे सेना को आपत्ति है, तो उसके लिए अदालत के दरवाजे खुले हुए हैं, लेकिन तोड़फोड़ करने या धमकी देने का अधिकार उसे नहीं है।
लेख – शाहिद ए चौधरी के द्वारा