स्वतंत्र फिलिस्तीन (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: हमास ने अंतिम 20 जीवित बंधकों को रिहा कर दिया है और लगभग 2,000 फिलिस्तीनी भी इजराइल की जेलों से आजाद हो गए हैं।आखिरकार 2 साल बाद डरावने सपने का अंत हुआ है।लोग अपने घर वापस आए हैं, लेकिन सभी के चेहरों पर मुस्कान नहीं लौटी है।वर्तमान समझौता इस बात की गारंटी नहीं नहीं है है कि टकराव फिर से जल्द आरंभ नहीं हो सकता।जब तक फिलिस्तीन को राज्य का दर्जा दिए जाने का विरोध होता रहेगा और मांग उठती रहेगी कि हमास से हथियार ले लिए जाएं व इजराइल को आधुनिक हथियारों से लैस किया जाए, तब तक पश्चिम एशिया में स्थायी शांति की कल्पना करना ही फिजूल है।2 नवंबर 1917 की बालफौर घोषणा में इजराइल राज्य के गठन का कोई प्रस्ताव नहीं था, केवल यहूदियों को फिलिस्तीन में बसाने की बात थी और वह भी फिलिस्तीनियों की अनुमति के बिना घोषणा पूर्णतः एकतरफा थी।
लेकिन आज जब इजराइल को अपने ‘अस्तित्व की रक्षा करने के अधिकार’ की वकालत की जाती है, तो फिलिस्तीन राज्य के गठन का विरोध करना न्यायोचित कैसे हो सकता है जबकि 1948 में उनकी ही जमीन पर जबरन कब्जा करके इजराइल को थोपा गया।अमेरिका ने इजराइल को हथियार सप्लाई करना बंद नहीं किया बल्कि दूसरे देशों पर अजीबोगरीब पाबंदियां लगाई हैं।मसलन लेबनान को वायु सेना रखने से वंचित किया हुआ है, नतीजतन इजराइल जब चाहता है लेबनान पर हवाई हमला कर देता है और पश्चिम एशिया में तनाव बना रहता है।अब डोनाल्ड ट्रंप ने नोबल शांति पुरस्कार के लालच में गाजा में इजराइल व हमास के बीच दो साल से चल रहे युद्ध पर विराम लगाया है, लेकिन वह भी इस क्षेत्र की खूनी प्रवृत्ति को बदलने में नाकाम रहे हैं।इजराइल संसद को संबोधित करते हुए उन्होंने ‘नए मध्य पूर्व में ऐतिहासिक सुबह’ की घोषणा अवश्य की है, लेकिन साथ ही इजराइल को आधुनिक हथियार देने का वायदा भी किया।
कमाल है, आप हमास से तो हथियार त्यागने की उम्मीद करते हो लेकिन इजराइल को हथियार देना चाहते हो, क्या यह कसाई द्वारा जानवर को रस्सी से बांधकर काटने जैसा कृत्य नहीं है? इसमें हमास को हथियारों से वंचित करने की तो इच्छा है, लेकिन बेंजामिन नेतान्याहू को युद्ध अपराधों से मुक्त करने का भी प्रयास है, जैसे निर्दोष बच्चों, महिलाओं व पत्रकारों को ‘कोल्ड ब्लड’ में मारना कोई जुर्म ही न हो।ट्रंप ने तो इजराइल के राष्ट्रपति से आग्रह किया है कि वह भ्रष्टाचार के मामलों में नेतान्याहू को माफी प्रदान कर दें।नेतन्याहू पर भ्रष्टाचार के मामलेः नेतान्याहू पर इजराइल की अदालतों में भ्रष्टाचार के तीन अलग-अलग मुकदमे चल रहे हैं, जिनमें उनके खिलाफ अकाट्य साक्ष्य होने का अनुमान है।कुछ इजराइली विशेषज्ञों का कहना है कि अदालत द्वारा सजा से बचने के लिए ही नेतन्याहू ने जंग को इतना लंबा खींचा और बीच में जो युद्धविराम व शांति समझौते के अनेक अवसर आए उन्हें नाकाम किया।
नेतन्याहू पर आरोप है कि राजनीतिक लाभ पहुंचाने के बदले में उन्होंने रईसों से 2,60,000 डॉलर मूल्य के जेवरात, सिगार, शैम्पेन आदि लिए।नेतन्याहू को इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने भी नरसंहार का दोषी माना है जिस कारण वह अनेक देशों की यात्रा नहीं कर सकते, क्योंकि उनको गिरफ्तार किया जा सकता है।अमेरिका व यूरोप की भूमिकाएं भी पश्चिम एशिया में अच्छी नहीं रही हैं।ईरान ने भी अपने एक्सिस ऑफ रेसिस्टेंस (हिजबुल्ला, हुती आदि) के जरिए स्थिति को बद से बदतर करने की ही कोशिश की है।इस सबमें नुकसान फिलिस्तीनियों का ही हुआ है, उन्हें ही अपनी जान-माल व जमीन से हाथ धोना पड़ा है।इस बहस में एक तथ्य को हमेशा अनदेखा कर दिया जाता है।अरब मूल के यहूदियों और फिलिस्तीनियों (दोनों मुस्लिम व ईसाई) में कभी आपस में कोई मतभेद व टकराव नहीं रहा है, बल्कि उन्होंने हमेशा ही सह-अस्तित्व को प्राथमिकता दी है।लेकिन यहूदी हमेशा ही इस भाईचारे के विरोध में रहे हैं।
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इजराइल-हमास समझौता
1948 में इजराइल के बनने से पहले लेबनान, सीरिया, फिलिस्तीन व इराक में लगभग 8,00,000 यहूदी शांतिपूर्वक रहते थे और इराक का यहूदी समाज इनमें सबसे अधिक प्रभावी था, जो वहां 2,500 वर्षों से रह रहा था.
लेख-विजय कपूर के द्वारा