पेटीएम पेमेंट्स बैंक के नए ग्राहक बनाने पर भारतीय रिजर्व बैंक की रोक ने एक बार फिर सवाल खड़े कर दिए हैं कि एक नियामक संस्था को किसी बैंक या फिनटेक कंपनी पर रोक लगाने के हालात क्यों पैदा हो जाते हैं. एक नियामक संस्था आखिर इतना समय क्यों ले लेती है, जब आम लोगों के आर्थिक हित बड़े पैमाने पर इन संस्थाओं के साथ जुड़ जाते हैं.
लोगों के दिमाग में सवाल खड़ा हो जाता है कि आखिर सरकार या प्रतिनिधि नियामक संस्था अब तक कर क्या रही थी? उसका निगरानी विभाग क्यों सोया हुआ था. रिजर्व बैंक ने पेटीएम पेमेंट्स बैंक से उसके सूचना प्रौद्योगिकी सिस्टम का ऑडिट कराने के लिए कहा है. उसे पेटीएम के मॉनिटरिंग सिस्टम को लेकर कुछ चिंताएं हैं. किंतु यह काम तो काफी पहले ही किया जा सकता था. दिसंबर में ही पेटीएम पेमेंट्स बैंक ने घोषणा की थी कि उस महीने में यूपीआई लेन-देन की संख्या 92.6 करोड़ हो गई है. यह बहुत बड़ी संख्या है. तब रिजर्व बैंक ने यह सवाल क्यों नहीं उठाया कि पेटीएम का मॉनिटरिंग सिस्टम या सूचना प्रौद्योगिकी का प्लेटफार्म पर्याप्त सुरक्षित है या नहीं.
डिजिटल भुगतान का चलन भारत में तेजी से बढ़ रहा है और लोग इसे अपना रहे हैं. यह स्वीडन या दक्षिण कोरिया के मुकाबले अब भी बहुत कम है, लेकिन भारत में डिजिटल भुगतान का लोकप्रिय हो रहा है, साधारण लोग भी इसे अपना रहे हैं. रिजर्व बैंक और सरकार को इस दिशा में सतर्क रहना चाहिए कि ये पेमेंट्स बैंक ज्यादा सुरक्षित हों और वित्तीय क्षेत्र के डिजिटलीकरण की साख को नुकसान न पहुंचाते हों.
देश में यूपीआई के जरिए जो लेन-देन होता है, उसमें पेटीएम की हिस्सेदारी 12 प्रश है और वह यूपीआई लेन-देन में तीसरे नंबर पर है. हम अनुमान लगा सकते हैं कि कितनी बड़ी तादाद में लोग डिजिटल भुगतान सेवाओं का इस्तेमाल कर रहे होंगे. यह सवाल सिर्फ पेटीएम का नहीं है. भारत के वित्तीय क्षेत्र में काम करने वाली तमाम कंपनियों व संस्थाओं के लिए है. खासतौर से फिनटेक कंपनियों के मामले में सरकार और रिजर्व बैंक को समय रहते कदम उठाते रहने चाहिए.