दलाई लामा के चयन में चीन का दखल नामंजूर (सौजन्यः सोशल मीडिया)
नवभारत डिजिटल डेस्क: भारत ने सख्ती के साथ चीन के इस दावे को ठुकरा दिया है कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी का चयन करने में उसे निर्णायक अधिकार है। भारत ने इस बात पर बल दिया है कि इस मुद्दे पर फैसला केवल तिब्बत के आध्यात्मिक गुरु की इच्छाओं और स्थापित बौद्ध परम्पराओं के अनुसार ही हो सकता है। दलाई लामा ने घोषणा की थी कि अपने उत्तराधिकारी पर निर्णय लेने का उन्हें ‘विशिष्ट प्राधिकरण’ है। संसदीय मामलों के मंत्री किरण रिजीजू के अनुसार, ‘न केवल तिब्बतियों के लिए बल्कि दुनियाभर में उनके लाखों अनुयायियों के लिए भी दलाई लामा का पद अति महत्व का है। सदियों पुरानी बौद्ध परम्परा के अनुसार अपने उत्तराधिकारी का चयन करने का अधिकार केवल उनका है।
तिब्बती बौद्धों के 90-वर्षीय आध्यात्मिक गुरु, जो 1959 से भारत में निर्वासन में रह रहे हैं। ने हाल ही में कहा था कि दलाई लामा की संस्था उनकी मृत्यु के बाद भी जारी रहेगी और उनके उत्तराधिकारी का वक्त उनके द्वारा स्थापित गैर-मुनाफे वाली गादेन फोडरंग ट्रस्ट करेगी। इससे पहले दलाई लामा ने कहा था कि उनका उत्तराधिकारी चीन के बाहर रहने वाले उनके समर्थकों में से होगा। दलाई लामा की यह बात चीन को पसंद नहीं है क्योंकि यह तिब्बत में से अपने किसी ‘वफादार’ को अगला दलाई लामा बनाना चाहता है। चीन का कहना है। ‘दलाई लामा के पुनर्जन्म को घरेलू पहचान ‘गोल्डन अर्न’ प्रक्रिया के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। दलाई लामा के 90वें जन्मदिन का सप्ताह (30 जून से 6 जुलाई 2025) जोर शोर से धर्मशाला सहित दुनियाभर में मनाया जा रहा है, जिसमें भारत सरकार के प्रतिनिधि भी हिस्सा ले रहे हैं और अगले दलाई लामा के चयन की चर्चा आम हो गई है।
बीजिंग इस महत्वपूर्ण तिब्बती संस्था पर कब्जा करने के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा कर रहा है। उसे वर्तमान दलाई लामा के निधन का इंतजार है। बीजिंग को यह अवसर अपने आप मिल जायेगा अगर पुनर्जन्म के सिद्धांतों के अनुसार चयन के परम्परागत तरीके का पालन किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि एक बार जब दलाई लामा का पुनर्जन्म लेने वाले व्यक्ति-जो आमतौर से कम उम्र का लड़का होता है की पहचान कर ली जाती है तो उसे इस जिम्मेदार पद के लिए तैयार किया जाता है, जिसमें तकरीबन 20 साल का समय लगता है। निश्चितरूप से चीन इतने समय तक इंतजार करने वाला नहीं है और वह ल्हासा के पोटाला पैलेस पर अपना दलाई लामा थोप देगा।
लेकिन वर्तमान दलाई लामा के तरकश में एक महत्वपूर्ण तीर है वैधता। वैसे दलाई लामा इस बात को लेकर स्पष्ट हैं कि उनका उत्तराधिकारी चीन के बाहर मुक्त संसार में पैदा होगा। यह संभव है कि अगले दलाई लामा की पहचान भारत के तवांग में हो, जहां छठे दलाई लामा का जन्म हुआ था। लेकिन इससे भारत-चीन संबंधों में टकराव का एक और बिंदु उत्पन्न हो जाएगा- दोनों देशों में एक-एक दलाई लामा। दलाई लामा पर राजनीतिक टकराव शी जिनपिंग को पसंद आएगा, चूंकि चीन का तिब्बत पर कब्जा है, इसलिए वह मजबूत स्थिति में हैं। लेकिन यहां अमेरिका भी खिलाड़ी है। अमेरिकी कांग्रेस ने हाल ही में एक द्विदलीय प्रस्ताव पारित किया जो बीजिंग के किसी भी हस्तक्षेप को ठुकराते हुए इस बात की पुष्टि करता है कि केवल दलाई लामा को ही अपना उत्तराधिकरी चुनने का हक़ है। समय आने पर भारत व अमेरिका मिलकर दलाई लामा के चयन में सहयोग भी कर सकते हैं।
इसका अर्थ है कि भू-राजनीतिक शतरंज के खेल के केंद्र में तिब्बत की वापसी हो जाएगी। यह सही है कि नैतिक दृष्टि से भारत को उत्तराधिकारी के प्रश्न पर वर्तमान दलाई लामा के दृष्टिकोण का समर्थन करना चाहिए, जो वह कर भी रहा है, जैसा कि किरण रिजीजू के बयान से जाहिर है और चीन के चयन का विरोध करना चाहिए, लेकिन रणनीति के नजरिये से यह काफी महंगा सौदा होगा। भारत ने दलाई लामा को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की है कि वह लोगों की भीड़ जमा करें, धर्मशाला में अपने विदेशी अनुयायियों को आमंत्रित करें और विदेशी अधिकारियों से भी मिलें। भारत ने तिब्बत पर चीनी समप्रभुता को स्वीकार कर लिया था, लेकिन उत्तराधिकारी के प्रश्न पर यह बात लागू नहीं होती है। इसलिए भारत दलाई लामा को धार्मिक व राजनीतिक आजादी देना जारी रख सकता है।
डॉ. अनिता राठौर द्वारा