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नवभारत विशेष: जटिल रोगों का निदान व चिकित्सा संभव, ऑटोइम्यून प्रणाली से जुड़ी वैज्ञानिक समझ को बदला

Nobel Prize: नोबेल विजेताओं ने पाया कि एफओएक्सपीओ3 के नष्ट होने से प्रतिरक्षा प्रणाली नष्ट हो जाती है। इस शोध और जैविक प्रयोगों के नतीजों ने ऑटोइम्यून प्रणाली से जुड़ी वैज्ञानिक समझ को बदलकर रख दिया।

  • By दीपिका पाल
Updated On: Oct 18, 2025 | 01:24 PM

जटिल रोगों का निदान व चिकित्सा संभव (सौ. डिजाइन फोटो)

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नवभारत डिजिटल डेस्क: इस साल चिकित्सा के क्षेत्र में मिलने वाला नोबेल जिस शोध को मिला है, वह कई जटिल बीमारियों के निदान और चिकित्सा के रास्ते सुगम करने वाला है। कई वर्षों से फिजियोलॉजी या चिकित्सा अथवा मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार उन खोजों को मिल रहे हैं, जो सैद्धांतिक होने के साथ व्यवहारिक भी हैं। इस साल का नोबेल मानव प्रतिरक्षा प्रणाली को गहराई से समझने, उसे नियंत्रित करने की दिशा में गहन शोध तथा महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए दिया गया है।

अमेरिका की मेरी ब्रंको, फ्रेड रेम्सडेल तथा जापान के शिमोन साकागुची के शोध इस बात का जवाब हैं कि रेग्युलेटरी सेल प्रतिरक्षा तंत्र के कार्य को कैसे घटाता-बढ़ाता है? इन्हें समझने के बाद कोई ऑन-ऑफ स्विच जैसा प्लग तलाशा जाए या ऐसी विधि जिससे इसके कार्य को बढ़ाया-घटाया अथवा नियंत्रित कैसे किया जाए? शोध के दौरान उन्होंने नियामक टी-कोशिकाओं टीरेग्स और प्रतिलेखन कारक एफओएक्सपी3 को भी इस भूमिका के लिए पहचाना। नोबेल विजेताओं ने पाया कि एफओएक्सपीओ3 के नष्ट होने से प्रतिरक्षा प्रणाली नष्ट हो जाती है। इस शोध और जैविक प्रयोगों के नतीजों ने ऑटोइम्यून प्रणाली से जुड़ी वैज्ञानिक समझ को बदलकर रख दिया। निस्संदेह यह क्रांतिकारी खोज चिकित्सा विज्ञान में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान हैं।

आत्मघाती बन जाती है प्रतिक्षा प्रणाली

हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर में पहुंचने वाले हर बाहरी तत्व, सूक्ष्मजीवों को उनके प्रोटीन के जरिए पहचानती, परखती है। ये विजातीय और नुकसान पहुंचाने वाले हुए तो इनसे हमलावर मानकर लड़ती है और रोग या विकार पैदा करने से उन्हें रोकती है। यह जीवन रक्षक प्रणाली तब आत्मघाती बन जाती है, ऐसे में हमारा इम्यून सिस्टम भ्रमित होकर अपने ही अंगों को नुकसान पहुंचाने लगता है, जिसे रोकना बहुत कठिन हो जाता है। कभी ऐसा भी होता है कि हमें अपने शरीर को सुचारु रूप से चलाने के लिए किसी बाहरी तत्व या अंग को शरीर में प्रत्यारोपित करना पड़ता है, लेकिन तब मुसीबत खड़ी हो जाती है जब सतर्क प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर में प्रत्यारोपित अंग को ‘अनजाना’ और ‘बाहरी’ समझकर उसे अस्वीकार कर देता है।

इस संदर्भ में उस पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। जिसके बारे में इस बार के नोबेल पुरस्कृत वैज्ञानिकों ने शोध किया है। यह सुरक्षा प्रणाली जो शरीर की अपनी कोशिकाओं और प्रोटीनों को पहचानती है और किसी भी हमलावर टी-सेल को नि्क्रिरय या समाप्त कर देती है। इन शोधों का महत्व केवल सैद्धांतिक नहीं बल्कि व्यवहारिक भी है- इससे कैंसर, ऑटोइम्यून रोगों और अंग प्रत्यारोपण से जुड़ी चिकित्सा विधियों में सुधार होगा तथा भविष्य में लाखों मरीजों के लिए यह खोज रोग से राहत का कारण बनेगी।

ये भी पढ़ें–  नवभारत विशेष के लेख पढ़ने के लिए क्लिक करें 

ऑटोइम्यून रोग जैसे गठिया, मल्टिपल स्कलेरोसिस, क्रोंस डिजीज और कैंसर के संदर्भ में इम्यूनोथैरेपी के नतीजे बेहद शानदार हो जाएंगे। ब्रूंको और रैम्सडेल ने अपना शोध कार्य उद्योग जगत के भीतर ही किया, जिससे यह भी पता चलता है कि वैज्ञानिक नवाचार केवल अकादमिक प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं हैं।

लेख- संजय श्रीवास्तव के द्वारा

Changed scientific understanding of the autoimmune system

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Published On: Oct 18, 2025 | 01:24 PM

Topics:  

  • Medical Sector
  • Nobel Prize
  • Special Coverage

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