नवभारत विशेष (डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: तियानजिन में हो रही एससीओ समिट की फोटो मैसेजिंग ने दुनिया की कूटनीति में भूचाल ला दिया है।पिछले 48 घंटों में यूरोप के विभिन्न देशों और अमेरिका के बीच जो फोन घनघना रहे हैं, उनके बहुत कुछ मायने हैं।अमेरिकी नौकरशाहों और यूरोपीय यूनियन के नौकरशाहों के बीच पिछले 24 घंटे में दो दर्जन से ज्यादा रणनीतिक संवाद हुए हैं।चिंताजनक खबरें आ रही हैं, ट्रंप के दबाव में यूरोपीय यूनियन के कई देश, भारत ही नहीं, भारत की कॉरपोरेट कंपनियों पर भी प्रतिबंध लगाने की गुस्ताखी कर सकते हैं।इसलिए हमें दो कदम आगे और एक कदम पीछे की रणनीति बिल्कुल नहीं भूलनी चाहिए, क्योंकि इतिहास में एक नहीं कई बार चीन से हम धोखा खा चुके हैं और रूस भी अब वह रूस नहीं रहा, जो सोवियत संघ के जमाने में था।
सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि भारतीय कॉरपोरेट जगत पर जो करीब कुल मिलाकर 15 से 17 लाख करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष कर्ज है, वो सब डॉलर में है और ऐसे में हिंदी चीनी भाई-भाई नारा तो ठीक है, पर हमें ऐसे भी उत्साह में आने की जरूरत नहीं है कि एक झटके में एक डॉलर, सौ रुपये के बराबर हो जाए।क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो डॉलर के विरुद्ध कमजोर रुपया हमारी हालत पतली कर सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी के उस बयान को भी न भूलिए, जिसमें उन्होंने साफ कहा है कि निवेश चाहे काला हो या लाल हो, सभी तरह के निवेश का भारत स्वागत करता है।जाहिर है प्रधानमंत्री की टिप्पणी में यह संदेश स्पष्ट कि हमें डॉलर से किसी तरह का परहेज नहीं है और निकट भविष्य में अभी ब्रिक्स की साझी मुद्रा भविष्य का अनुमानभर है।हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारा समूचा कॉरपोरेट ढांचा डॉलर ओरिएंटेड है।हमारे बड़े हित विशेषकर टेक्नोलॉजी हस्तांतरण से संबंधित सारे हित, डॉलर के ढांचे पर से ही बंधे हैं।भारतीय कॉरपोरेट जगत की 90 फीसदी कमाई डॉलर में है।
भारत में 70 फीसदी से ज्यादा निवेश डॉलर में है।भारत दुनिया का सबसे ज्यादा रिमीटेंस डॉलर में हासिल करता है और हमारी सारी ऑफशोर कमाई जो पिछले साल आईटी सेक्टर की कमाई के रूप में 104 बिलियन की थी, वह सब डॉलर में थी और उससे भी बड़ी बात यह कि हमारे सर्विस सेक्टर की 70 फीसदी कमाई बरास्ता अमेरिका है।इसलिए हमें हर कदम बहुत सोच समझकर आगे बढ़ाना होगा।कहीं हम ट्रंप को सबक सिखाने के उत्साह में यूरोप को नाराज न कर बैठे।क्योंकि भले यूरोपीय नेता लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी बातें करते हों, लेकिन अंत में सब अमेरिका के पीछे ही चलते हैं।माना कि चीन के साथ हमारा 100 बिलियन का कारोबार है और सारे अहम या कोर क्षेत्रों में चीन ने हमारी कमजोर नस भी दबा रखी है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ईरान के साथ बढ़-चढ़कर गलबहियां डालने वाला चीन पिछले दिनों उसकी मदद के लिए सामने नहीं आया।हमें यह बात भी याद रखना चाहिए कि अमेरिका ने भारत पर जो 50 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया है, फिलहाल उससे हमारा अधिकतम 40 बिलियन डॉलर का कारोबार प्रभावित हो रहा है और उसमें भी अंतिम नतीजों के रूप में हमें 25 से 30 अरब डॉलर का ही झटका लगेगा।लेकिन अगर हमने अमेरिका को कुढ़ने का मौका दिया तो अमेरिका टैरिफ से कहीं ज्यादा भारतीय कॉरपोरेट जगत पर प्रतिबंध लगाकर हमारी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर सकता है।
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ट्रंप प्रशासन कतई ऐसे संकेत नहीं दे रहा कि वह टैरिफ नीति में नरमी लाएगा।चीन की दोस्ती अवसर से कम अभी भी जोखिम ज्यादा लग रही है।क्योंकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन का अभी भी ऑल वेदर फ्रेंड पाकिस्तान है।ऑपरेशन सिंदूर के बाद चीन ने पाकिस्तान को परमाणु पनडुब्बी की जो ताकत मुहैय्या कराई है, वह भारत और पाकिस्तान की नौसेना के बीच शक्ति संतुलन का जो बड़ा गैप था, उसे एक झटके में ही बहुत कम कर दिया है.
लेख- वीना गौतम के द्वारा