हाई कोर्ट (फाइल फोटो)
Nagpur News: पैतृक सम्पत्ति में बहन के आधे हिस्से को लेकर चल रहे महत्वपूर्ण मामले में दोनों पक्षों की लंबी दलीलों के बाद हाई कोर्ट ने अहम फैसला देते हुए बहन के आधे हिस्से पर मुहर लगा दी। अदालत ने भाई के पक्ष में किए गए 30 साल से अधिक पुराने, एक अपंजीकृत ‘त्याग पत्र’ को सबूत के तौर पर मानने से भी इनकार कर दिया।
विशेषत: इस मामले को लेकर निचली अदालत में भी वर्षों तक सुनवाई जारी रही। निचली अदालत ने बहन के पक्ष में संपत्ति के बंटवारे का आदेश दिया था और मृत भाई के परिवार द्वारा दायर दूसरी अपील को खारिज कर दिया था। निचली अदालत के इस फैसले को भी हाई कोर्ट ने बरकरार रखा।
नागुबाई शामराव कुकडे (मूल वादी) और उनके मृत भाई विश्वनाथ के परिवार (अपीलकर्ता) के बीच संपत्ति बंटवारे को लेकर विवाद चल रहा था। नागुबाई के पिता का निधन 2 अक्टूबर 1982 को और मां का निधन 4 नवंबर 1986 को हुआ था। नागुबाई का दावा था कि पिता की मृत्यु के बाद संपत्ति में वह, उनके भाई विश्वनाथ और उनकी मां, तीनों 1/3 हिस्से के वारिस बने।
बाद में मां के निधन के बाद उनका हिस्सा भी भाई-बहन में बराबर बंट गया जिससे नागुबाई संपत्ति में कुल मिलाकर आधी हिस्सेदार बन गईं। इसके विपरीत भाई के परिवार ने 7 मार्च 1984 के एक ‘त्याग पत्र’ का हवाला देते हुए मुकदमे का विरोध किया। उनका दावा था कि इस दस्तावेज के जरिए नागुबाई ने अपना हिस्सा भाई विश्वनाथ के पक्ष में छोड़ दिया था।
अदालत ने स्पष्ट किया कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत यह संपत्ति ‘टेनेंट्स इन कॉमन’ के रूप में विरासत में मिली थी जिसका अर्थ है कि प्रत्येक उत्तराधिकारी का संपत्ति में अलग-अलग और स्वतंत्र स्वामित्व अधिकार था। ऐसे में किसी भी हिस्से का त्याग या हस्तांतरण एक पंजीकृत दस्तावेज के माध्यम से होना अनिवार्य है। चूंकि यह त्याग पत्र पंजीकृत नहीं था, इसलिए इसे सबूत के रूप में नहीं माना जा सकता।
नागुबाई ने त्याग पत्र पर अपने अंगूठे के निशान को हमेशा विवादित बताया था। मामले में नियुक्त एक फिंगरप्रिंट विशेषज्ञ की रिपोर्ट भी अनिश्चित थी लेकिन रिपोर्ट इस ओर इशारा कर रही थी कि अंगूठे का निशान वादी का नहीं हो सकता है। इस कारण अदालत ने माना कि दस्तावेज का निष्पादन ही साबित नहीं हो सका।
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अदालत ने यह भी पाया कि राजस्व रिकॉर्ड में भाई विश्वनाथ का नाम कथित ‘त्याग पत्र’ के 13 साल बाद 1997 में दर्ज किया गया था। प्रतिवादी यह साबित करने में विफल रहे कि यह नामांतरण उसी त्याग पत्र के आधार पर किया गया था। इन सभी कारणों के आधार पर हाई कोर्ट ने माना कि वादी को एक कथित और अपंजीकृत ‘त्याग पत्र’ के आधार पर उसके कानूनी अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।