गोसीखुर्द परियोजना (फाइल फोटो)
Gosikhurd Scheme Scam: राज्यभर में गूंजे सिंचाई घोटाले में भले ही कुछ लोगों को क्लीन चिट मिली हो किंतु अधिकारियों को अब तक इसमें राहत नहीं मिल पाई है। सिंचाई विभाग में अधीक्षक अभियंता और विदर्भ सिंचाई विकास निगम (VIDC) की गोसीखुर्द परियोजना के प्रभारी रहे संजय खोलपुरकर पर भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 13(1)(c), 13(1)(d) और 13(2) तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 420 और 109 के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया।
इन आरोपों से दोषमुक्त करने के लिए खोलापुरकर ने हाई कोर्ट में याचिका तो दायर की किंतु सुनवाई के बाद न्यायाधीश उर्मिला जोशी फालके ने दोषमुक्त करने से इनकार करते हुए याचिका खारिज कर दी। कोर्ट ने कहा कि अभियुक्त के खिलाफ प्रथमदृष्टया मामला बनता है और उसे मुकदमे का सामना करना होगा। याचिकाकर्ता की ओर से अधि। साहिल देवानी और राज्य सरकार की ओर से अधि। अनंत घोंगरे ने पैरवी की।
याचिकाकर्ता की ओर से तर्क दिया कि 26 जुलाई 2018 से लागू हुए संशोधित भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17(ए) के तहत आरोप पत्र दायर करने से पहले पूर्व अनुमोदन आवश्यक था। इस पर कोर्ट ने फैसले में कहा कि इस तर्क को पहले ही एक पिछली मुकदमेबाजी में खारिज कर दिया गया था और वह आदेश अंतिम हो गया था। अदालत ने दोहराया कि धारा 17(ए) केवल 26 जुलाई 2018 के बाद शुरू की गई पूछताछ या जांच पर लागू होती है। उससे पहले की जांचों पर नहीं होती है।
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि उनकी भूमिका केवल सिफारिश करने वाली थी और निर्णय उच्च अधिकारियों द्वारा लिए गए थे, जबकि कोर्ट ने कहा कि जांच के कागजात से पता चलता है कि याचिकाकर्ता ने न केवल परियोजना/निविदा लागत बढ़ाने में बल्कि नियमों के विपरीत ठेकेदार को अग्रिम भुगतान की सिफारिश करने में भी सक्रिय भूमिका निभाई।
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सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने इस बात पर जोर दिया कि उन्हें इसी तरह के आरोपों पर हुई विभागीय जांच में बरी कर दिया गया था किंतु कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विभागीय जांच में लगाए गए आरोप और वर्तमान आपराधिक मामले में लगाए गए आरोप समान नहीं हैं। अदालत ने यह भी कहा कि आपराधिक मामलों में सबूत का मानक विभागीय जांच से अधिक कठोर होता है और विभागीय जांच में बरी होने से आपराधिक मुकदमा अपने आप खत्म नहीं हो जाता। विशेष रूप से यदि आरोप समान न हों या बरी होना योग्यता के आधार पर न हो।