गोसीखुर्द प्रोजेक्ट (सौजन्य-सोशल मीडिया)
Gosikhurd Irrigation Scam: सिंचाई घोटाले के अंतर्गत गोसीखुर्द प्रकल्प के टेंडर को लेकर हुई धांधली के मामले में लगातार संबंधित अधिकारियों को हाई कोर्ट से तगड़ा झटका लग रहा है। इसी शृंखला में गोसीखुर्द प्रकल्प के मुखिया रहे विदर्भ सिंचाई विकास महामंडल के कार्यकारी निदेशक (एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर, वीआईडीसी) देवेन्द्र शिर्के को भी राहत देने से हाई कोर्ट ने साफ इनकार कर दिया।
हाई कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका खारिज करते हुए सिंचाई परियोजना से जुड़े कथित भ्रष्टाचार के मामले में उन पर मुकदमा चलता रहेगा, इसके आदेश दिए। शिरके ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13(1)(c), 13(1)(d), 13(2) और भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 468, 471, 109, 120-B के तहत दर्ज मामले में डिस्चार्ज आवेदन दायर किया था। निचली अदालत ने 5 अगस्त 2019 को उनके डिस्चार्ज आवेदन को खारिज कर दिया था जिसके खिलाफ हाई कोर्ट में यह पुनरीक्षण याचिका दायर की थी।
विदर्भ के सिंचाई प्रकल्पों में हुए घोटाले को लेकर हाई कोर्ट में दायर जनहित याचिका पर कोर्ट के रुख के बाद 30 मार्च 2016 को एफआईआर दर्ज की गई थी जिसमें विदर्भ सिंचाई विकास निगम (VIDC) की सिंचाई प्रकल्पों में अनियमितताओं की जांच का आदेश दिया गया था। जांच में खुलासा हुआ कि याचिकाकर्ता देवेंद्र परशुराम शिरके VIDC, नागपुर के कार्यकारी निदेशक के रूप में कार्यरत थे और गोसीखुर्द परियोजना उनके नियंत्रण में थी।
आरोपों के अनुसार शिरके ने महाराष्ट्र लोक निर्माण मैनुअल के तहत कार्य नहीं किया और निविदा कार्य के आवंटन से पहले आवश्यक कदम नहीं उठाए। उन पर जानबूझकर ठेकेदारों को लाभ पहुंचाने का आरोप है। जिसके लिए उन्होंने केंद्रीय जल आयोग के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करते हुए श्रम सुविधाओं की लागत को अवैध रूप से मूल निविदा लागत में जोड़कर निविदा लागत को अपडेट किया। उन्होंने निविदा की अनुमानित लागत को 51.09 करोड़ रुपये से अवैध रूप से संशोधित करके 53.88 करोड़ रुपये कर दिया जिससे 2.79 करोड़ रुपये की अवैध लागत वृद्धि हुई।
शिरके ने अपनी डिस्चार्ज याचिका में तर्क दिया था कि उनका पूर्व-योग्यता प्रक्रिया से कोई संबंध नहीं था। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें विभागीय जांच से बरी कर दिया गया था और चूंकि विभागीय जांच में आरोप सिद्ध नहीं हो सके, इसलिए आपराधिक मुकदमे का सामना करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि आपराधिक मामलों में ‘उचित संदेह से परे’ (beyond reasonable doubt) साबित करने की आवश्यकता होती है।
उन्होंने यह भी दलील दी कि उनका नाम शुरू में एफआईआर में नहीं था। सरकारी वकील ने आवेदन का कड़ा विरोध करते हुए कहा कि जांच से पता चला है कि आवेदक VIDC के कार्यकारी निदेशक थे और गोसीखुर्द परियोजना उनके नियंत्रण में थी। उन्होंने जानबूझकर ठेकेदारों की मदद करने के इरादे से अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि विभागीय जांच से बरी होना स्वचालित रूप से आपराधिक अभियोजन को रद्द नहीं करता है। न्यायालय ने कहा कि विभागीय जांच और आपराधिक मुकदमे में आरोपों का मानक अलग-अलग होता है। इस मामले में विभागीय जांच और वर्तमान अभियोजन में आरोप समान नहीं हैं।
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विभागीय आरोप मैनुअल का पालन न करने से संबंधित थे, जबकि आपराधिक आरोप ठेकेदारों को अनुचित लाभ पहुंचाने और सरकारी धन का दुरुपयोग करने से संबंधित हैं। न्यायालय ने कहा कि आवेदक, कार्यकारी निदेशक के रूप में, निविदा दस्तावेजों की जांच, कार्य की निगरानी और निविदा प्रपत्रों की जांच में सक्रिय रूप से शामिल थे। रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से स्पष्ट होता है कि आवेदक ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए ठेकेदारों को लाभ पहुंचाया।