बच्चू कडू (सोर्स: सोशल मीडिया)
नागपुर: पूर्व राज्यमंत्री और जिला मध्यवर्ती बैंक के अध्यक्ष रहने वाले बच्चू कडू को विभागीय सहनिबंधक द्वारा 13 मई 2025 को जारी आदेशानुसार अध्यक्ष पद सहित बैंक के संचालक पद के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया है। कडू ने इस आदेश को चुनौती देते हुए हाई कोर्ट में याचिका दायर की। इस पर गुरुवार को सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने राज्य सरकार के सहकार, पणन एवं टेक्सटाइल विभाग सचिव, सहकार विभाग के विभागीय सहनिबंधक, जिला उपनिबंधक, अमरावती डिस्ट्रिक्ट सेंट्रल को-ऑपरेटिव बैंक के सीईओ, हरिभाई मोहोड सहित तमाम प्रतिवादियों को नोटिस जारी कर जवाब दायर करने के आदेश दिए।
विभागीय सहनिबंधक की ओर से बच्चू कडू पर बैंक की व्यवस्थापन समिति के शेष कार्यकाल के लिए पुन: नामनिर्देशित, स्वीकृत, नियुक्त व निर्वाचित होने पर भी पाबंदी लगा दी थी।
बच्चू कडू के खिलाफ नासिक के सकरवाडा पुलिस थाने में आईपीसी की धारा 353 व 504 के तहत अपराधिक मामला दर्ज किया गया था जिसकी सुनवाई करते हुए नासिक की विशेष अदालत ने कडू को एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई थी। इसके खिलाफ बच्चू कडू ने मुंबई हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी।
हाई कोर्ट ने सजा के अमल पर रोक लगाई थी और यह मामला अब भी न्यायप्रविष्ट है। इसी बात को आधार बनाते हुए अमरावती जिला मध्यवर्ती बैंक के संचालक हरिभाऊ मोहोड सहित अन्य 11 संचालकों ने विभागीय सहनिबंधक के समक्ष याचिका दायर की।
इस याचिका में दावा किया था कि बैंक की विधि व उपविधि सहित महाराष्ट्र सहकारी संस्था अधिनियम 1960 की धाराओं के मुताबिक यदि कोई भी व्यक्ति किसी भी कानून के तहत किसी अपराध के लिए कम से कम एक वर्ष या उससे अधिक अवधि के लिए कारावास की सजा पाता है तो उसे व्यवस्थापकीय समिति के सदस्य एवं किसी पद पर नियुक्त व नामनिर्देशित होने के लिए योग्य नहीं माना जाए।
याचिका में बच्चू कडू ने विभागीय सहनिबंधक के आदेश को रद्द करने का अनुरोध कोर्ट से किया। सुनवाई के दौरान बच्चू कडू की ओर से पैरवी कर रहे वकील ने कहा कि भले ही नासिक कोर्ट ने बच्चू कडू को एक साल के कारावास की सजा सुनाई है लेकिन नासिक कोर्ट के आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दिए जाने के बाद हाई कोर्ट ने इस सजा पर रोक लगा दी थी।
कोर्ट में दलील दी गई की बच्चू कडू उस वक्त जिला बैंक के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने हेतु अयोग्य नहीं थे। वकील ने कहा कि सजा पर रोक लगाना ही स्थगित किए जाने जैसा है। ऐसे में विभागीय सहनिबंधक द्वारा दिया आदेश कानून की नजरों में तर्कहीन है।