फिराक गोरखपुरी (सोर्स- सोशल मीडिया)
Firaq Gorakhpuri: रात भी नींद भी कहानी भी…शेर का दूसरा मिसरा इस कहानी के अंत में…क्योंकि जितना बेहतरीन यह शायर है उससे कहीं ज्यादा बेहतरीन इनकी कहानी है। फिल्मी दुनिया ने और आज के लोगों ने इस शायर को ‘फिराक गोरखपुरी’ के नाम से जाना, जबकि उनका असली नाम रघुपति सहाय है।
रघुपति सहाय कैसे फिराक गोरखपुरी बन गए? उन्होंने यह फैसला क्यों लिया? इसके अलावा वह महात्मा गांधी से क्यों नाराज हो गए थे? इंदिरा गांधी के प्रस्ताव को उनके मुंह पर ठुकराने की हिमाकत की थी। तो चलिए जानते हैं रघुपति सहाय उर्फ ‘फिराक गोरखपुरी’ की जिंदगी से जुड़े दिलचस्प किस्से…
फिराक गोरखपुरी ने इंदिरा गांधी का कौन सा प्रस्ताव ठुकरा दिया था? उन्होंने महात्मा गांधी से क्यों नाराजगी जताई थी? इन सवालों के जवाब जानेंगे लेकिन उससे पहले उनके नाम बदलने के पीछे का रहस्य जान लेते हैं।
अगस्त 1916 में मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर आए जो कि अक्सर फिराक के पिता गोरख प्रसाद ‘इबरत’ के साथ उनके आवास लक्ष्मी निवास तुर्कमानपुर में बैठते थे। एक बार प्रेमचंद को एक पत्रिका मिली जिसमें प्रसिद्ध उर्दू लेखक नासिर अली ‘फिराक’ का नाम छपा था। उन्हें नासिर के नाम में ‘फिराक’ शब्द बहुत पसंद आया। उन्होंने इसे उपनाम बनाने का फैसला कर लिया। हालांकि तब फैसला किया था, जोड़ा नहीं था।
साहित्यकार रवींद्र सिंह ने एक बातचीत में बताया कि फिराक से पहले स्वदेश पत्र में ग़ज़लें प्रकाशित नहीं होती थीं, लेकिन उनके आने के बाद इसमें ग़ज़लें छपने लगीं। उनकी पहली ग़ज़ल महात्मा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में स्वदेश के संपादकीय में प्रकाशित हुई थी- ‘जो ज़बाने बंद थी आज़ाद हो जाने को हैं’। इस मिसरे के चलते फिराक को 1921 में पहली बार गिरफ्तार किया गया।
रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ (सोर्स- सोशल मीडिया)
इसके बाद 1924 में फिराक नेहरू के निमंत्रण पर दिल्ली पहुंचे और उनके निजी सचिव बन गए। उनके जाने के बाद पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ स्वदेश का संपादकीय कार्य देखने लगे, लेकिन जब ‘स्वदेश’ पर फिर से सरकार विरोधी होने का आरोप लगा, तो ‘उग्र’ फरार हो गए और दशरथ प्रसाद द्विवेदी को गिरफ्तार कर लिया गया।
‘उग्र’ के बाद रामनाथ लाल सुमन संपादक बने, जिन्होंने ‘स्वदेश’ के होली अंक (18 मार्च 1927) में रघुपति सहाय की ग़ज़ल के नीचे पहली बार ‘फिराक’ उपनाम जोड़ दिया। रघुपति सहाय को यह उपनाम पहले से ही पसंद था। यहीं से वे ‘फिराक’ बन गए। गोरखपुर के होने चलते आगे गोरखपुरी जुड़ गया और वे फिराक गोरखपुरी के नाम से मशहूर हो गए।
फिराक गोरखपुरी के नाम से जो उनकी पहली ग़ज़ल थी उसका मत’अला कुछ यूं था–
‘न समझने की है बात न समझाने की।
जिंदगी उचटी हुई नींद है दीवाने की।।
8 फरवरी 1921 को महात्मा गांधी शहर के बाले मियां मैदान में आए। फिराक साहब भी उनका भाषण सुनने आए थे। भाषण सुनने के बाद वे गांधी जी के अनुयायी बन गए और अपना प्रशासनिक पद छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और लगभग डेढ़ साल तक आगरा और लखनऊ की जेलों में रहे। चौरी-चौरा कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया, तो उन्हें गांधी जी का यह निर्णय पसंद नहीं आया, इसलिए बहुत कम समय में ही उनकी गांधी जी में रुचि समाप्त हो गई।
एक समय ऐसा भी था जब इंदिरा गांधी फिराक गोरखपुरी को राज्यसभा का सदस्य बनाना चाहती थीं। एक बार फिराक लाल किले में आयोजित एक मुशायरे में भाग लेने दिल्ली गए थे, तो इंदिरा जी ने उन्हें अपने आवास पर बुलाया और यह प्रस्ताव उनके सामने रखा। फिराक ने यह कहते हुए अनुरोध अस्वीकार कर दिया कि मोतीलाल नेहरू के समय से ही आनंद भवन से उनके गहरे संबंध रहे हैं। आपसे मुझे जो स्नेह मिला है, वह एक बार नहीं, बल्कि सौ बार राज्यसभा सदस्य बनने के बराबर है।
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अब चलिए शुरुआत का वह अधूरा शे’र मुकम्मल कर देते हैं–
रात भी, नींद भी, कहानी भी।
हाय क्या चीज है जवानी भी।।