मुलायम सिंह यादव (फाइल फोटो)
नवभारत डेस्क : कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव की जवानी के दिनों में अगर उनका हाथ अपने विरोधी की कमर तक पहुंच जाता था तो वह चाहे कितना भी लंबा-चौड़ा या ताकतवर क्यों न हो, खुद को उसकी पकड़ से छुड़ाने की हिम्मत नहीं करता था। राजनीति में भी उन्होंने अपने विरोधियों के साथ ऐसा ही किया। आज यानी गुरुवार 10 अक्टूबर को उनकी दूसरी पुण्यतिथि है। इस मौके पर हम उनके राजनीतिक सफर से लेकर उनके असर तक सब कुछ जानेंगे।
आज भी उनके गांव के लोग उनके चरखा दांव को नहीं भूले हैं, जब वह बिना हाथ का इस्तेमाल किए पहलवान को चित कर देते थे। शिक्षक बनने के बाद मुलायम ने कुश्ती पूरी तरह छोड़ दी थी। लेकिन जीवन के आखिरी समय तक वह अपने गांव सैफई में कुश्ती दंगल का आयोजन करते रहे। लेकिन उत्तर प्रदेश पर नजर रखने वाले कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इसी कुश्ती कौशल की वजह से मुलायम राजनीति के मैदान में भी उतने ही सफल रहे, जबकि उनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं थी।
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मुलायम सिंह की प्रतिभा को सबसे पहले प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता नत्थू सिंह ने पहचाना और 1967 के चुनाव में उन्हें जसवंतनगर विधानसभा सीट से टिकट दिलाया। उस समय मुलायम की उम्र महज 28 साल थी और वे प्रदेश के इतिहास में सबसे कम उम्र के विधायक बने। विधायक बनने के बाद उन्होंने एमए की पढ़ाई पूरी की। 1977 में जब उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तो मुलायम सिंह को सहकारिता मंत्री बनाया गया। उस समय उनकी उम्र महज 38 साल थी।
चौधरी चरण सिंह मुलायम सिंह को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी और उनके बेटे अजित सिंह को कानूनी उत्तराधिकारी बताते थे। लेकिन जब पिता के गंभीर रूप से बीमार होने के बाद अजित सिंह अमेरिका से भारत लौटे तो उनके समर्थकों ने उन्हें पार्टी का अध्यक्ष बनाने पर जोर दिया। इसके बाद मुलायम सिंह और अजित सिंह के बीच प्रतिद्वंद्विता बढ़ गई। लेकिन मुलायम सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। 5 दिसंबर 1989 को लखनऊ के केडी सिंह बाबू स्टेडियम में उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और मुलायम ने रुंधे गले से कहा, “गरीब के बेटे को मुख्यमंत्री बनाने का लोहिया का पुराना सपना सच हो गया।”
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