रामधारी सिंह 'दिनकर' (सोर्स-सोशल मीडिया)
नवभारत डेस्क: आज यानी सोमवार 23 सितंबर को उस भारतीय कवि की 116वीं जयंती है। जिसकी कविताओं में एक तरफ अंगार बरसता था तो दूसरी तरफ प्रेम सुधा की वर्षा होती थी। उन्होंने प्रेम, क्रांति, ओज, और विद्रोह को समानांतर रखकर अपनी कलम चलाई। उनकी रचनाएं भले ही 100 साल पुरानी हों लेकिन प्रासंगिक आज भी उतनी ही हैं।
हम उस कवि की बात कर रहे हैं जिसने कर्ण को लिखा तो साहित्य के ‘रश्मिरथ’ पर सवार हो गए। जिसने ‘कुरुक्षेत्र’ का वर्णन किया तो कलियुग में लोगों ने महाभारत देख ली। जब ‘उर्वशी’ लिखी तो श्रृंगार के उत्तुंग शिखर को छू लिया। इतना ही नहीं उन्होंने जब लाल किले की प्राचीर से कविता पढ़ी तो रोम-रोम देश प्रेम के लिए फड़क उठा। अब तक आप पहचान गए होंगे। हम बात कर रहे हैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की।
‘राष्ट्रकवि’ के नाम से पूजित और लोकप्रिय रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितम्बर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। उनका बचपन संघर्ष से भरा था जहाँ स्कूल जाने के लिए गंगा घाट तक पैदल जाना पड़ता था और फिर गंगा पार करके पैदल जाना पड़ता था।
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पटना विश्वविद्यालय से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद जीविका के लिए वे पहले शिक्षक बने और फिर बिहार सरकार में सब रजिस्ट्रार के पद पर कार्यरत रहे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के युद्ध प्रचार विभाग में काम किया और उनके खिलाफ कविताएँ लिखते रहे। आज़ादी के बाद वे मुजफ्फरपुर कॉलेज में हिंदी के विभागाध्यक्ष बनकर चले गए।
1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गए जहाँ उन्होंने दो कार्यकाल तक संसद सदस्य के रूप में योगदान दिया। इसके बाद वे भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुए और एक साल बाद भारत सरकार ने उन्हें अपना हिंदी सलाहकार नियुक्त कर वापस दिल्ली बुला लिया।
ओज, विद्रोह, क्रोध और कोमल प्रणय भावनाओं के कवि दिनकर की काव्य यात्रा हाई स्कूल के दिनों में ही शुरू हो गई थी, जब उन्होंने रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा प्रकाशित ‘युवक’ अखबार में ‘अमिताभ’ नाम से अपनी रचनाएँ भेजनी शुरू की थी। 1928 में प्रकाशित ‘बारदोली-विजय’ संदेश उनका पहला कविता संग्रह था।
बाकी दिनकर की कविताओं और कृतियों का जिक्र करने बैठा तो शायद सूर्योदय से सूर्यास्त हो जाएगा। लेकिन दिनकर की रचनाओं का दिन नहीं ढलेगा। क्योंकि हिंदी साहित्य में ‘दिनकर’ ऐसा सूर्य है जो 23 सितंबर 1908 में उदित हुआ और 24 अप्रैल 1974 को उसका शरीर ढल भी गया। लेकिन उसकी कविताएं आज भी साहित्याकाश में प्रकाश बनकर चमक रही हैं और शायद जबतक दिनकर ब्रह्मांड में हैं तब तक ‘दिनकर’ को जिंदा रखेंगी।
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