
अटल बिहारी वाजपेयी, फोटो डिजाइन- नवभारत
Atal Bihari Vajpayee Jayanti: 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के वो शिखर पुरुष थे, जिन्होंने गठबंधन सरकारों के दौर में भी ‘अटल’ निर्णय लेने का साहस दिखाया। वे अपना कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे।
अटल बिहारी वाजपेयी शब्द जितने प्रभावशाली थे, उनके फैसले उतने ही दूरगामी निकले। आइए जानते हैं उनके कार्यकाल के वो 10 बड़े फैसले, जिनके आईने में आज भी इतिहास उन्हें तौलता है। फैसले जिसने वाजपेयी को अटल बना दिया।
अटल सरकार का सबसे साहसिक फैसला 11 मई 1998 को राजस्थान के पोखरण में परमाणु परीक्षण करना था। ‘ऑपरेशन शक्ति’ के तहत किए गए इस परीक्षण को अमेरिका की सैटेलाइट्स और अंतरराष्ट्रीय दबाव को धता बताकर अंजाम दिया गया। इस मिशन की गोपनीयता इतनी थी कि डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को ‘मेजर जनरल पृथ्वीराज’ और डॉ. चिदंबरम को ‘नटराज’ के कोड नेम दिए गए थे और वैज्ञानिक मिलिट्री की वर्दी में काम करते थे। इस फैसले ने भारत को ‘न्यूक्लियर डिटरेंस’ दिया और दुनिया को संदेश दिया कि भारत अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर निर्भर नहीं है।
अटल जी ने देश के आर्थिक विकास को गति देने के लिए सड़कों के माध्यम से भारत को जोड़ने की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की। उन्होंने दिल्ली, मुंबई, चेन्नई और कोलकाता को जोड़ने वाली ‘स्वर्णिम चतुर्भुज’ परियोजना और ग्रामीण इलाकों के लिए ‘प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना’ लागू की। उनके इस फैसले ने भारत के परिवहन और व्यापार की शक्ल बदल दी।
भारत में मोबाइल और टेलीफोन को आम आदमी तक पहुंचाने का श्रेय अटल सरकार की 1999 की नई टेलीकॉम नीति को जाता है। उन्होंने बीएसएनएल (BSNL) के एकाधिकार को खत्म किया और रेवेन्यू शेयरिंग मॉडल पेश किया, जिससे कॉल दरें सस्ती हुईं और मोबाइल फोन का दौर शुरू हुआ।

‘स्कूल चले हम’ शिक्षा के क्षेत्र में अटल जी का योगदान ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के रूप में आज भी जीवित है। 2000-01 में शुरू की गई इस योजना का उद्देश्य 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना था। उन्होंने खुद इस अभियान की थीम लाइन ‘स्कूल चले हम’ लिखी थी। इसके परिणामस्वरूप बच्चों के स्कूल छोड़ने (ड्रॉप आउट) की दर में भारी कमी आई।
आर्थिक सुधारों की दिशा में वाजपेयी ने 1999 में एक अलग ‘विनिवेश मंत्रालय’ का गठन किया, जिसके मंत्री अरुण शौरी बनाए गए। बाल्को (BALCO), हिंदुस्तान जिंक और विदेश संचार निगम लिमिटेड (VSNL) जैसी सरकारी कंपनियों के निजीकरण की प्रक्रिया इसी दौरान शुरू हुई। उन्होंने बीमा क्षेत्र में भी विदेशी निवेश (FDI) के रास्ते खोले।
वाजपेयी ने फरवरी 1999 में दिल्ली-लाहौर बस सेवा शुरू कर दोस्ती का हाथ बढ़ाया। वे खुद बस से लाहौर गए और ‘मीनार-ए-पाकिस्तान’ का दौरा किया, जिसे पाकिस्तान की संप्रभुता को स्वीकार करने के एक बड़े संकेत के रूप में देखा गया। हालांकि, इसके बाद उन्हें करगिल युद्ध और कंधार विमान अपहरण जैसी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा, जहां उनकी सरकार की आलोचना भी हुई।

आतंकवाद पर कड़ा प्रहार 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले के बाद, वाजपेयी सरकार ने आतंकवाद से निपटने के लिए टाडा (TADA) से भी कड़ा ‘पोटा’ (आतंकवाद निरोधी अधिनियम) कानून बनाया। हालांकि, दुरुपयोग के आरोपों के कारण बाद में इसे निरस्त कर दिया गया, लेकिन उस समय आंतरिक सुरक्षा के लिए इसे एक जरूरी कदम माना गया था।
फरवरी 2000 में वाजपेयी सरकार ने संविधान में संशोधन की जरूरत पर विचार करने के लिए ‘संविधान समीक्षा के राष्ट्रीय आयोग’ का गठन किया। न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलाइया की अध्यक्षता वाले इस आयोग ने कई सिफारिशें कीं, हालांकि भारी विरोध के कारण इसे आगे नहीं बढ़ाया जा सका।
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अटल सरकार ने एक महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक निर्णय लेते हुए 2001 में होने वाली जातिवार जनगणना पर रोक लगा दी थी। उनसे पहले की सरकार ने इसकी मंजूरी दी थी, लेकिन वाजपेयी ने इस फैसले को पलट दिया, जिसे लेकर आज भी बहुजन समाज के नेता उनकी आलोचना करते हैं।

2002 के गुजरात दंगों के दौरान वाजपेयी की भूमिका और उनकी लंबी चुप्पी की कड़ी आलोचना होती है। हालांकि, उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को सार्वजनिक रूप से ‘राजधर्म’ का पालन करने की सलाह दी थी और दंगों को देश के माथे पर दाग बताया था, लेकिन वे मोदी को पद से हटा नहीं पाए, जिसे इतिहास उनकी एक ‘राजनीतिक चूक’ के रूप में देखता है।






