मनोज बाजपेयी (सौ. सोशल मीडिया)
मुंबई: एक्टर मनोज बाजपेयी ने अपनी आंखों में बहुत से सपने संजोए थे। उन सपनों को पूरा करने के लिए वे अपने बिहार के छोटे से गांव से निकले थे। अब जब उनकी ख्वाहिशें पूरी हो गई हैं, तो उन्हें अपने गांव की याद सताने लगी है। अब वे उन्हीं पगडंडियों से अपने घर लौटना चाहते हैं। मनोज बाजपेयी ने ‘द्रोहकाल’, ‘सत्या’, ‘बैंडिट क्वीन’, ‘शूल’, ‘जुबैदा’, ‘राजनीति’, ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘अलीगढ़’ और ‘सोनचिरिया’ में बेहतरीन प्रदर्शन किया है। साथ ही फिल्मों का नया मानक भी तय कर दिया है।
मनोज बाजपेयी कहते हैं कि “ये एक विडंबना है कि जब मैं वहां था तो उस जगह से निकलना चाहता था। अब उस परमात्मा ने एक ऐसी जिंदगी दी है और सब हासिल कर लिया है, तो वहीं लौटने का मन करता है।”
मनोज बिहार से आकर दिल्ली के थियेटर में करीब एक दशक तक रहे और उसके बाद मुंबई चले गए। मनोज समय के अनुसार जगह भी बदलते रहे। लेकिन वह कहते हैं कि ‘घर तो हमेशा बेलवा ही रहेगा” जो बिहार में उनका पैतृक गांव है। वह बिहार के गांव से निकलकर मुंबई के सिल्वर स्क्रीन पर अपनी अभिनय की अलग छाप छोड़ने वाले पहले एक्टर रहे। उनसे पहले बिहार से आने वाले शत्रुघ्न सिन्हा ने फिल्मों में अपनी धाक जमा ली थी।
मनोज बाजपेयी ने पीटीआई के साथ इंटरव्यू में कहा कि “मुझे पता चला कि सत्या देखने के बाद न केवल मेरे गांव और जिले के बल्कि राज्य के दूसरे हिस्सों से भी लड़के लोग घरों से बाहर निकलने लगे। वो सभी अभिनेता नहीं बनना चाहते थे लेकिन बहुत से लड़कों ने तो ये सोचकर गांव-घर छोड़ा कि जब ये लड़का बॉलीवुड में पहुंच सकता है तो हम भी अपनी जिंदगी में कुछ बड़ा, कुछ मनचाहा कर सकते हैं।”
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मनोज आगे कहते हैं कि “अपनी आराम की जिंदगी से निकलने और कुछ करने का साहस उन लोगों में उससे पहले नहीं था क्योंकि वहां इस प्रकार का कोई ढांचा ही नहीं था। उन्होंने कहा कि शत्रु जी के मामले में तो हर कोई जानता है कि वह धनी परिवार से आते हैं और पटना से ताल्लुक रखते हैं। उन्हें तो दिल्ली पहुंचने के लिए केवल एक ट्रेन पकड़नी थी। हम लोगों को पहले ट्रैक्टर पकड़ना होता था। उसके बाद बस और उसके बाद दिल्ली के लिए ट्रेन में सवार होना पड़ता था। केवल पटना पहुंचने के लिए ढाई दिन लगते थे।” भीखू म्हात्रे का एक डायलॉग ‘मुंबई का किंग कौन’ अब सिनेमा के इतिहास का हिस्सा है लेकिन इस किरदार के चयन की कहानी भी काफी रोचक है।
मनोज बाजपेयी 1997 में राम गोपाल वर्मा की ‘दौड़’ के लिए ऑडिशन देने गए थे। जिसमें संजय दत्त हीरो और उर्मिला मातोंडकर हीरोइन का किरदार निभा रहे थे। ये ‘बैंडिट क्वीन’ के बाद की बात है जिससे उन्हें पहचान तो मिली थी लेकिन असली ब्रेक नहीं मिला था। इस पर मनोज कहते हैं कि “जब फिल्म रिलीज हुई तो हर दूसरे एक्टर के पास इंडस्ट्री में काम था। केवल एक अकेला मैं था जिसके पास कोई काम नहीं था।”
दौड़ एक्टर ने बताया कि “उन्हें वह ऑडिशन एकदम ऐसे याद है जैसे कल की ही बात हो। जब राम गोपाल वर्मा को पता चला कि चार साल पहले ‘बैंडिट क्वीन’ में मैंने ही मान सिंह का किरदार निभाया था तो उन्होंने मुझे बताया कि वह चार-पांच साल से मुझे ढूंढ रहे थे, लेकिन किसी को मेरे बारे में ज्यादा पता नहीं था।”
रामू ने कहा कि “तुम यह दौड़ फिल्म मत करो। मैं अपनी अगली फिल्म बना रहा हूं और उसमें तुम मुख्य भूमिका करोगे।” लेकिन बाजपेयी ने जोर देकर कहा कि “उन्हें यह फिल्म करनी ही पड़ेगी। मनोज ने कहा कि “सर, मुझे ये रोल दे दो और जब वो फिल्म करो तो बाद में आप मुझे उसमें ले सकते हो। इसके लिए मुझे 35,000 रुपये मिल रहे हैं। इस समय ये मौका मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।”
रामू ने मनोज से किया अपना वह वादा निभाया। फिर बाजपेयी का ‘सत्या’ के बाद बहुत मुश्किल और लंबा सफर शुरू हुआ लेकिन वे इसे संघर्ष नहीं कहते। मनोज का मानना था कि “असली संघर्ष तो एक रिक्शावाले का होता है। अगर वो एक दिन भी रिक्शा नहीं खींचेगा तो वह कमा नहीं पाएगा। यह उसका सपना नहीं है, हम तो अपने सपनों के पीछे भाग रहे हैं। ये संघर्ष नहीं है।”