
बिहार विधानसभा चुनाव 2025, (कॉन्सेप्ट फोटो)
Phulwari Assembly Constituency: बिहार की राजधानी पटना से सटी फुलवारी विधानसभा सीट (अनुसूचित जाति आरक्षित), अपनी राजनीतिक अस्थिरता और जटिल सामाजिक समीकरणों के कारण प्रदेश की राजनीति में एक ‘तूफानी समंदर’ मानी जाती है। पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा यह सीट, 1977 में अस्तित्व में आने के बाद से लगातार अप्रत्याशित नतीजे देती रही है, जहां हर चुनाव में एक नया समीकरण बनता और टूटता है।
फुलवारी की राजनीतिक यात्रा एक व्यक्ति के वर्चस्व और एक पार्टी की क्रांति के इर्द-गिर्द घूमती है। इस सीट के इतिहास को श्याम रजक के बिना पूरा नहीं किया जा सकता, जो छह बार विधायक रह चुके हैं। उन्होंने जनता दल, राजद और जदयू के टिकट पर जीत हासिल की, जो उनकी व्यक्तिगत पकड़ को दर्शाता है। वह अब पुनः जदयू में लौट चुके हैं और इस सीट पर अपना दावा मजबूत कर रहे हैं।
शुरुआती दौर में कांग्रेस ने तीन बार जीत दर्ज की। बाद में राजद ने चार बार और जदयू ने दो बार जीत हासिल की। 2020 के विधानसभा चुनाव में फुलवारी ने एक बड़ा ‘ट्विस्ट’ दिया, जब यह सीट महागठबंधन के सहयोगी सीपीआई (माले) (लिबरेशन) के खाते में चली गई। माले के उम्मीदवार गोपाल रविदास ने जदयू के कद्दावर नेता अरुण मांझी को 13,857 वोटों के भारी अंतर से हराया। यह जीत न केवल माले के लिए एक बड़ी सफलता थी, बल्कि यह भी साबित कर दिया कि फुलवारी में संगठित वाम दल का कैडर वोट निर्णायक साबित हो सकता है।
चूंकि यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, इसलिए दलित मतदाता यहां सबसे ज्यादा निर्णायक भूमिका निभाते हैं। 2020 के आंकड़ों के मुताबिक, यहां 23.45 प्रतिशत अनुसूचित जाति के वोटर्स थे, जिनमें पासवान और रविदास समुदाय प्रभावी हैं। इसके अलावा, मुस्लिम मतदाता (14.9 प्रतिशत) और यादव-कुशवाहा-कोयरी जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग भी चुनावी नतीजों को प्रभावित करते हैं। यादव और मुस्लिम समुदाय का पारंपरिक झुकाव राजद की तरफ रहता है, जबकि वाम दल का मजबूत कैडर वोट समीकरण को हर बार जटिल बना देता है।
फुलवारी विधानसभा क्षेत्र की बनावट भी इसे खास बनाती है। पटना शहर से सटा होने के बावजूद, यह इलाका ग्रामीण और अर्ध-शहरी जीवन का मिश्रण है। यह क्षेत्र दो विपरीत सांस्कृतिक केंद्रों में बंटा है। एक तरफ, पुनपुन नदी है, जो हिंदू धर्म में ‘श्राद्ध’ के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल है। दूसरी तरफ, फुलवारी शरीफ है, जो सदियों से इस्लामी शिक्षा और सूफी परंपरा का केंद्र रहा है। इस द्वंद्व से निकली सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान ही यहां की राजनीति को प्रभावित करती है।
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इस बार का चुनाव फुलवारी में एक बार फिर कांटे की टक्कर सुनिश्चित करेगा, जहां श्याम रजक (जदयू) के अनुभव और गोपाल रविदास (माले) के मौजूदा जनाधार के बीच वर्चस्व की सीधी लड़ाई होगी।






