सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव (डिजाइन फोटो)
लखनऊ: उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के माता प्रसाद पांडेय तो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाने के बाद से ही सूबे की सियासत में खलबली मची हुई है। कहा जा रहा है कि सपा ने बीजेपी के वोटबैंक को चोट पहुंचाने के लिए ये दांव खेला है। राजनीतिक गलियारों में अखिलेश यादव के इस दांव की चर्चा भी खूब हो रही है। लेकिन क्या सच में सपा इस दांव से बीजेपी का सियासी गणित बिगाड़ पाएगा या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि यह बैकफायर होकर सपा के पीडीए को ही नुकसान पहुंचा देगा?
उत्तर प्रदेश विधानसभा में अखिलेश यादव ने माता प्रसाद पांडेय को नेता प्रतिपक्ष बना दिया। जबकि, अखिलेश के विधायकी छोड़ने के बाद से ही अंदाजा ये लगाया जा रहा था कि शिवपाल सिंह यादव को नेता प्रतिपक्ष बनाया जाएगा। अखिलेश के इस निर्णय को सियासी पंडितों ने गुगली के तौर पर देखा। लेकिन, इस गुगली कि लाइन लेंथ कितनी सटीक साबित होगी? बीजेपी को क्लीन बोल्ड करेगी या फिर लेग स्टंप पर हॉफ बॉली हो जाएगी जिसे बीजेपी आसानी से बाउंड्री के बाहर पहुंचा सकेगी इसका सही पता तो राज्य की 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव के बाद ही पता चलेगा।
फिलहाल, माता प्रसाद पांडेय को विधानसभा अध्यक्ष बनाए जाने के पीछे जो तर्क राजनीतिक विश्लेषकों की तरफ से आए उसमें पहला यह था कि मनोज पांडेय के जाने के बाद से पार्टी में कोई ब्राह्मण चेहरा बड़े पद पर नहीं था। मनोज पांडेय पार्टी के तरफ से विधानसभा में मुख्य सचेतक (चीफ व्हिप) के पद पर आसीन थे। जो कि राज्यसभा चुनाव के बाद से बीजेपी के पाले में चले गए। इसकी भरपाई के लिए माता प्रसाद पांडेय को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया गया।
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इसके पीछे दूसरा कारण एक यह भी है कि सपा ने ‘पीडीए’ (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) में अगड़ा को भी शामिल करना चाहती है। ब्राह्मण चेहरे को नेता प्रतिपक्ष बनाने से अगड़ों में यह संदेश जाएगा कि सपा आपके लिए भी सोच रही है। जिससे बीजेपी का कोर वोटर कहा जाने वाला सवर्ण खासकर ब्राह्मण थोड़ा बहुत ही सही लेकिन ट्रांसफर होकर सपा की तरफ आ सके और सूबे में सपा की राजनीतिक पकड़ कहीं ज्यादा मजबूत हो सके। इसके अलावा माता प्रसाद पांडेय वरिष्ठ होने के साथ-साथ शिवपाल के करीबी भी माने जाते हैं। इसलिए विरोध की गुंजाइश भी नहीं थी।
अब सवाल यह है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि बीजेपी के वोट बैंक पर नज़र डाल रही सपा को ये दांव नुकसान न पहुंचा दे? तो यहां मामला 50-50 का हो जाता है। राजनीतिक चर्चाओं की मानें तो दलित और अल्पसंख्यक ब्राह्मणों पर जोर दिए जाने से असहज महसूस कर सकते हैं। असहजता में वो किसी और पार्टी का रुख भी कर सकते हैं। बीजेपी का विकल्प नहीं भी चुनेंगे तो कांग्रेस और बसपा की तरफ जा सकते हैं।
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हालांकि इसके विपक्ष में तर्क यह है कि कांग्रेस सपा के साथ गठबंधन में है वहीं बसपा सियासत में हाशिए पर। ऐसे में वह यह कदम नहीं भी उठा सकते हैं। बाकी सियासत है, इसमें कुछ भी प्रिडिक्ट करना काफी मुश्किल है। सही मायनों में कौन किसके साथ है, कौन दूर? इसका पता किसी भी चुनाव के नतीजों के बाद ही मालूम होता है।