न्यायपालिका कभी नहीं चाहेगी कि नौकरशाही उस पर हावी होने की कोशिश करे। जज कभी भी किसी राजनेता या अफसर के दबाव में आना पसंद नहीं करते। यह ठीक भी है क्योंकि न्यायपालिका लोकतंत्र के 3 स्तंभों में से एक है और उसकी स्वतंत्र और निष्पक्ष हैसियत है। देश में सरकार के सामने झुकनेवाली प्रतिबद्ध न्यायपालिका (कमिटेड ज्युडीशियरी) बनाने की कोशिश हमेशा नाकाम रही है।
यह बात अलग है कि इक्के-दुक्के जज रिटायरमेंट के बाद राजनीति में जाने, राज्यसभा सदस्य या किसी आयोग का प्रमुख बनने की ख्वाहिश रखते हैं ताकि उनकी सरकारी सुविधाएं व स्टाफ बरकरार रहे। पद पर रहते हुए जज न्यायपालिका की गरिमा के प्रति सजग रहते हैं और उन्हें रहना भी चाहिए। हाल ही में केंद्र सरकार के एक बड़े अधिकारी ने एक लेख लिखकर जजों की छुट्िटयों और कामकाजी घंटों को लेकर आलोचना की। इसका करारा जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने सुना दिया कि जज के कामकाज के घंटे नहीं, अफसरों की लेटलतीफी देखी जाए। अधिकारी खुद समय पर नहीं आते और कहते हैं कि जज बहुत कम काम करते हैं। यदि यह अधिकारी शासन का हिस्सा हैं तो वह हमें बताएं कि केंद्र या किसी अन्य राज्य सरकार द्वारा किसी मामले में समय पर अपील दाखिल की गई हो। जो लोग जजों के वर्किंग ऑवर्स की आलोचना करते हैं, उन्हें पहले सरकारी अधिकारियों द्वारा मामले में की जानेवाली देरी को दूर करने के बारे में समुचित कदम उठाने चाहिए।
अधिकारी के लेख पर जज की प्रतिक्रिया अपनी जगह है लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि जजों के ग्रीष्मकालीन अवकाश के औचित्य पर पहले भी प्रश्नचिन्ह लगता रहा है। यह परंपरा भारत में ब्रिटिश शासनकाल से चली आ रही है। तब अंग्रेज जज भारत की गर्मी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। इसके अलावा वे छुट्टी बिताने इंग्लैंड में अपने घर जाते थे। तब पानी के जहाज से जाने में 15-20 दिन लग जाते थे और भारत लौटने में भी उतना समय लगता था। एकाध महीना वे विलायत में अपने परिवार के साथ बिताते थे।
अब तो सभी जज भारतीय हैं जो यहां के गर्म मौसम के अभ्यस्त हैं। इसके अलावा एसी की व्यवस्था है जो अंग्रेजों के जमाने में नहीं थी। जिस कार से जज कोर्ट आते हैं उसमें भी एसी लगा रहता है। इसलिए सहज प्रश्न उठता है कि जजों को ग्रीष्मावकाश की आवश्यकता क्या है? यह बात अलग है कि इस दौरान वेकेशन जज कामकाज देखते हैं परंतु छुट्टी की वजह से न्यायपालिका की स्ट्रेंग्थ या जजों की तादाद कम हो जाती है और मुकदमों की तारीख बढ़ती चली जाती है। यह दलील भी दी जाती है कि कितने ही जज छुट्टी के दौरान अपना जजमेंट तैयार करने, कानूनी पहलुओं का अध्ययन करने में व्यस्त रहते हैं। इन बातों के बावजूद देश में न्यायपालिका पर मुकदमों का बढ़ता बोझ देखते हुए क्या जज स्वेच्छा से लंबा ग्रीष्मावकाश लेना टाल सकते हैं?