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नवभारत डेस्क: सुप्रीम कोर्ट ने एक सप्ताह के भीतर जो 2 आदेश दिए, उनसे यह सिद्धांत हमेशा के लिए तय हो जाना चाहिए कि लंबे समय तक जेल भेजने की बजाय अभियुक्त को जमानत दी जानी जाहिए, दिल्ली के पूर्व डिप्टी सीएम व ‘आप’ नेता मनीष सिसोदिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुकदमे में विलंब और लंबे समय तक हिरासत में रखा जाना जमानत मंजूर करने का पर्याप्त आधार प्रदान करते हैं।
आतंकवाद विरोधी कानून (यूएपीए) और प्रीवेंशन ऑफ मनी लांडिंग (पीएमएलए) दोनों में ही जमानत को लेकर नकारात्मक प्रावधान हैं। ये दोनों कानून अभियुक्त को मासूम या बेगुनाह मानकर नहीं चलते। इसके विपरीत सामान्य कानूनों में जमानत देने के लिए व्यक्ति को बेगुनाह मान कर चला जाता है। जब तक अपराध सिद्ध नहीं हो जाता, उसे मासूम माना जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट संकेत किया है कि कानून कितना भी कठोर हो, अभियुक्त की जमानत मंजूर की जानी चाहिए, यूएपीए मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बेल (जमानत) नियम हो और जेल अपवाद हो, यही कानून की मंशा है। इस बुनियाद पर विवादास्पद कानूनों की व्याख्या होनी चाहिए, इन कानूनों के प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। इससे हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट को संकेत लेना चाहिए, पहले भी सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि जमानत पर कानूनी नियंत्रण से संवैधानिक अधिकारों का हनन नहीं होना चाहिए।
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6 माह पहले सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य बेंच ने यूएपीए मामले में कहा था कि जमानत नहीं, बल्कि जेल नियम होना चाहिए, ऐसे विरोधाभासी संकेतों से समझ में नहीं आता कि किसी कानून की किस तरह व्याख्या की जा रही है? सुप्रीम कोर्ट के हाल के 2 आदेशों से यह मामला सुलझ जाना चाहिए और कोई भ्रम बाकी नहीं रहना चाहिए। यूएपीए और पीएमएलए के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता पर सुप्रीम कोर्ट को विचार करना चाहिए, मनी बिल में किए गए संशोधन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की बाट जोह रहे हैं।
पीएमएलए और यूएपीए में कितने ही विचाराधीन कैदी महीनों में जेल में हैं, जबकि उनके वकीलों का सवाल है कि हिरासत में रखने की क्या जरूरत है? यदि उससे पूछताछ हो गई है तो उसे जमानत क्यों नहीं दे दी जाती? उचित होगा कि जेल और बेल से जुड़े इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से जांचकर्ताओं तथा अभियुक्त को दिशानिर्देश उपलब्ध कराया जाए।
लेख चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा