सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: केंद्र-राज्य संबंधों में संतुलन की आवश्यकता हर कोई महसूस करता है।सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पद की शपथ लेने के साथ ही न्यायमूर्ति बीआर गवई के सामने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के 14 प्रश्नों की सूची आ गई।क्या सुप्रीम कोर्ट की पीठ इन सवालों का जवाब देगी? मुद्दा यह है कि क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल के लिए अदालत कोई समय सीमा तय कर सकती है? राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत पूछा है कि क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 200 के तहत 3 महीने की समय सीमा तय कर सकता है जबकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।अनुच्छेद 143 (1) का प्रावधान राष्ट्रपति को किसी कानून या तथ्य के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगने की अनुमति देता है।
तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने राज्य विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों राष्ट्रपति के विचार हेतु रोक दिया था।इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने मुद्दत तय करते हुए कहा था कि बिल पहली बार भेजे जाने पर राज्यपाल 3 माह में निर्णय लें।यदि विधानसभा पुनर्विचार कर फिर से बिल भेजती है तो 1 माह में उस पर निर्णय लें।सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के लिए भी 3 माह की समयावधि तय कर दी।इससे विवाद उत्पन्न हो गया कि राष्ट्र के सर्वोच्च संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति को कोई कैसे समय सीमा के बारे में निर्देश दे सकता है? उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस संबंध में न्यायपालिका के रवैये की आलोचना की थी और कहा था कि संसद की सर्वोच्चता को चुनौती नहीं दी जा सकती।
संसद को कानून बनाने का अधिकार है तथा राष्ट्रपति के लिए विधेयक को मंजूर या नामंजूर करने की समय सीमा निर्धारित कर न्यायपालिका अपने अधिकार से परे चली गई है।यह ऐसा मुद्दा है जो केंद्र और राज्य संबंधों के संतुलन को प्रभावित करेगा।संविधान में राष्ट्रपति व राज्यपालों के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है।संविधान निर्माताओं ने कल्पना भी नहीं की होगी कि आगे चलकर केंद्र व राज्यों में इस तरह का टकराव आएगा तथा राज्यों की विपक्ष द्वारा शासित सरकारों और केंद्र के प्रतिनिधि राज्यपाल के बीच ठन जाएगी।
राम मंदिर विवाद पर नरसिंह राव सरकार के रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐतिहासिक और पौराणिक तथ्यों के मामलों में राय देना अनुच्छेद 143 के दायरे में नहीं आता इसी तरह 1993 में कावेरी जल विवाद पर भी कोर्ट ने राय देने से इनकार कर दिया था।2002 में गुजरात चुनावों के मामले में कोर्ट ने कहा था कि अपील या पुनर्विचार याचिका दायर करने की बजाय रेफरेंस भेजने का विकल्प गलत है।कोर्ट के नियमानुसार तमिलनाडु मामले में केंद्र को पुनर्विचार याचिका दायर करनी चाहिए।
कोर्ट रेफरेंस पर राय देने से मना कर सकता है।यदि उसने रेफरेंस स्वीकार किया तो कोर्ट में केंद्र-राज्य संबंध, संघीय व्यवस्था, राज्यपाल के अधिकार तथा अनुच्छेद 142 के बेजा इस्तेमाल पर बहस हो सकती है।इंदौर महापालिका मामले में सुको की 3 जजों की पीठ ने फैसला दिया था कि नीतिगत मामलों में संसद और केंद्र के निर्णयों पर न्यायिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
लेख-चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा