अभिव्यक्ति में बाधक मानहानि के प्रकरण (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: सुप्रीम कोर्ट ने मत व्यक्त किया है कि मानहानि मामलों को आपराधिक कानून से अलग करने का समय आ गया है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि सोशल मीडिया का निरंतर विस्तार हो रहा है तथा अभिव्यक्ति की आजादी का महत्व समझा जाने लगा है। ब्रिटिश कालीन कानूनों का इस्तेमाल कर अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाना कितना उचित है। फाउंडेशन फॉर इंडीपेंडेंट जर्नलिज्म की याचिका पर सुनवाई करते हुए न्या. एम.एम. सुदरेश व न्या. सतीशचंद्र शर्मा की पीठ ने जो टिप्पणी की उससे यह विषय फिर चर्चा में आ गया है। विगत कुछ समय से आपराधिक मानहानि के मामले बढ़ने तथा अनेक मामलों में कानून का दुरुपयोग होने से न्यायालय ने राय दी कि इस पुराने कानून को रद्द करने का समय आ गया है।
देश की आजादी के पहले नागरिकों के अधिकारों पर बंदिशें लगाने के लिए अनेक कानून बनाए गए थे। इनमें से एक मानहानि संबंधी कानून था। इसे भारतीय दंड विधान (आईपीसी) में शामिल किया गया था और अब भारतीय न्याय संहिता में भी इसे समाविष्ट किया गया है। यह बदले हुए समय व अभिव्यक्ति की आजादी के अनुकूल नहीं है। लोकतंत्र में विपक्ष की टीका-टिप्पणी व व्यंग्य खुले मन से स्वीकार करना अपेक्षित है। खरी आलोचना और द्वेषपूर्ण वक्तव्यों में बहुत मामूली सा अंतर होता है। सार्वजनिक मंच से भाषण देते समय या लिखने-बोलने में कभी-कभी लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन होता है। ऐसे में पीड़ित पक्ष सीधे मानहानि का मुकदमा दायर करता है। अरूण जेटली विरुद्ध केजरीवाल, नितिन गडकरी विरुद्ध केजरीवाल, जावेद अख्तर विरुद्ध कंगना रनौत जैसे मुकदमे पिछले दिनों चर्चित हुए।
पूर्णेश मोदी ने राहुल गांधी पर आपराधिक मानहानि का मामला चलाया था जिसमें राहुल की सांसदी जाते-जाते बची। ऐसे हजारों मुकदमे देश की विभिन्न अदालतों में चल रहे हैं। कभी बदले की भावना से भी इस कानून का इस्तेमाल होता है। अभिव्यक्ति की आजादी को महत्व देते हुए ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया व अफ्रीका के अनेक देशों ने ऐसे आपराधिक कानून रद्द या शिथिल कर दिए हैं। भारत में भी ऐसा किया जा सकता है। दूसरी बात यह भी है कि मानहानि का मामला टालने के लिए राजनेताओं को अपने बयानों में संयम बरतना चाहिए लेकिन आज की प्रतिस्पर्धात्मक व भड़काऊ राजनीति में इसका पालन होना मुश्किल है। विपक्षी नेताओं व सोशल मीडिया का मुंह बंद करने के लिए मानहानि मुकदमे का किसी शस्त्र के समान इस्तेमाल किया जाता है।
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टीवी चैनल पर बहस में भी कभी-कभी नेता संयम खो बैठते हैं। बीजेपी के प्रवक्ता गौरव भाटिया को अदालत ने संयम रखने की सलाह दी है। समाचार पत्रों को भी ऐसे मामलों का सामना करना पड़ता है। इसमें समय बर्बाद होने के अलावा कुछ नहीं होता। जिन्हें अपनी जिम्मेदारी का बोध है वह किसी की भी मानहानि करना टालते हैं और संयत शब्दों में आलोचना करते हैं। सरकार को स्वयं सोचना चाहिए कि यदि मानहानि का कानून लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति में बाधक है तो उसे हटाया या कम दंडनीय बनाया जाए।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा