राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी का महत्व
नवभारत डिजिटल डेस्क: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी को एक-दूसरे का पूरक माना जाता है। बीजेपी की स्थापना 1980 में हुई थी, लेकिन हिंदुत्व के एजेंडे की राजनीतिक धार तेज करने का काम भारतीय जनसंघ और हिंदू महासभा जैसी पार्टियां पहले बखूबी कर चुकी थीं। भारतीय जनसंघ का 1977 में जनता पार्टी में विलय कर दिया गया था। ये तमाम पार्टियां संघ से अलग इसलिए भी नहीं हैं, क्योंकि संघ और इन पार्टियों के बीच दोहरी सदस्यता का प्रावधान भी है। देश की पहली गैर कांग्रेस जनता पार्टी सरकार का पतन भी दोहरी सदस्यता की वजह से ही हुआ था। इसकी एक वजह यह थी कि जनता पार्टी में शामिल ज्यादातर पार्टियां ऐसी थीं, जो कांग्रेस से नाराज होने के बावजूद हिंदुत्व और धुर राष्ट्रवाद की छवि से पूरी तरह मुक्त थीं और इन पार्टियों ने जनसंघ के नेताओं पर यह दबाव बनाया था कि जनता पार्टी में रहते हुए संघ जैसे संगठन की सदस्यता नहीं ली जा सकती।
परिणामस्वरुप जनता पार्टी का विभाजन हुआ और भारतीय जनता पार्टी के रूप में संघ का एक नया अनुषंगी राजनीतिक संगठन अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में वजूद में आया। 1925 के सितंबर महीने की 25 तारीख को दशहरा पर्व के दिन डॉ. के. बी. हेडगेवार ने नागपुर में इस संगठन की स्थापना की थी। इस संगठन का सीधा सपाट नारा है, ‘जो हिंदू हित की बात करेगा, उनका संगठन उनके साथ रहेगा’। इसलिए जब कभी इस संगठन के नेताओं को लगता है कि उनके किसी एजेंडे को कांग्रेस आगे बढ़ा सकती है तो ये उसका साथ देने से भी संकोच नहीं करते। इसी तरह समय-समय पर संघ आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल जैसे अनेक दलों के साथ अपनी सक्रियता के नमूने पेश कर चुका है।
नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में राष्ट्रध्वज के रूप में तिरंगा झंडा पहली बार तब फहराया गया था, जब 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने के बाद संघ पर दबाव बनना शुरू हुआ था। इसके कुछ साल बाद ही संघ मुख्यालय पर तिरंगा झंडा फहराना शुरू हुआ था। अपने जन्म के बाद से देश के आजाद होने तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अंग्रेजों के खिलाफ कितना सक्रिय था, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ी गई स्वाधीनता की लड़ाई में उसकी क्या भूमिका थी और किस तरह की राष्ट्रवादी सोच इस संगठन के लोगों में तब पनप रही थी, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि संघ के गठन के दो साल बाद जब 1927 में साइमन कमीशन का विरोध स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने किया था, तब दूर-दूर तक संघ के कार्यकर्ता इस आंदोलन में दिखाई नहीं दिए थे।
एक तथ्य यह भी है कि साल 1929 में जवाहरलाल नेहरू ने कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से पार्टी के लाहौर अधिवेशन में राष्ट्रीय ध्वज के रूप में फहराने के साथ ही पूर्ण स्वराज का मकसद एक बार फिर उछाला था। लाहौर अधिवेशन में लिए गए फैसले के अनुरूप 26 जनवरी 1930 को देशभर में तिरंगे – झंडे के साथ धरना प्रदर्शन करने का फैसला लिया गया था। संघ ने इस फैसले को आंशिक रूप से ही स्वीकार किया था, संघ ने पूर्ण स्वराज के मामले को तो स्वीकार किया था, लेकिन तिरंगे झंडे को राष्ट्रध्वज के रूप में स्वीकार करने से इनकार किया था। इस संबंध में तत्कालीन संघ प्रमुख के। बी। हेडगेवार का यह बयान काबिले गौर है, ‘संघ पूर्ण स्वराज की मांग का समर्थन करता है, लेकिन तिरंगे के स्थान पर भगवा झंडा फहराएगा।’ संघ और उसके अनुषंगी संगठन कितने राष्ट्रवादी थे और महात्मा गांधी की हत्या में उनकी क्या भूमिका थी इसका खुलासा देश के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल ने सरकार के साथ समय-समय पर हुए अपने पत्राचार में साफतौर पर किया है।
लेख-ज्ञानेन्द्र पाण्डेय के द्वारा