अमेरिका की टैरिफ ब्लेकमैलिंग नीति (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: अपनी सनकभरी घोषणाओं के लिए विख्यात अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ऐलान कर दिया कि 1 अगस्त से अमेरिका, भारत पर 25 फीसदी टैरिफ लगाने जा रहा है। साथ ही उन्होंने भारत द्वारा रूस से हथियार और तेल खरीदने पर 10 फीसदी का जुर्माना और लगा दिया है। इस तरह अमेरिका ने भारत पर 25 नहीं 35 फीसदी का टैक्स ठोक दिया है। भारत और अमेरिका के संबंधों के लिए यह कड़वाहटभरी खबर तब आई, जब दोनों देशों के विज्ञान संगठन, इसरो और नासा ऐतिहासिक साझेदारी के चलते दुनिया का सबसे ताकतवर सैटेलाइट ‘निसार’ लांच कर रहे हैं। मन में दबी इच्छा है कि भारत, अमेरिका का पिछलग्गू बनकर रहे। आजादी के बाद से ही भारत अपनी निर्गुट नीति के लिए जाना जाता है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब दुनिया दो खेमों में बंट गई थी, तब भी हमने अपनी नॉन अलाइनमेंट की नीति को बरकरार रखा। अमेरिका चाहता है कि भारत उसके लिए अपने कृषि उत्पादों, डेयरी प्रोडक्ट बाजार पूरी तरह से खोल दे। इससे अमेरिका हमारे यहां अपने इस उत्पादों को डम्प कर दे, क्योंकि अमेरिका में ये उत्पादन इतनी बड़ी मात्रा में तैयार होते हैं कि एक क्या दस अमेरिका भी खुद अपने बाजार में उन्हें नहीं खपा सकता। जबकि भारत की आबादी 145 करोड़ से ज्यादा है, इस संख्या और उपभोक्ता बाजार का लालच ट्रंप नहीं छोड़ पा रहे। ट्रंप ने अपने पिछले कार्यकाल में भी भारत पर बहुत ज्यादा दबाव डालने की कोशिश की थी। यहां तक कि इसके लिए अमेरिका ने भारत से विशेष व्यापार दर्जा 2019 में छीन लिया था।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में कृषि कोई व्यापार या जीविकाभर नहीं है बल्कि यह हमारी जीवन संस्कृति है। भारत में गाय को माता मानते हैं। हमारे पवित्र कर्मकांडों में दूध का इस्तेमाल होता है। अमेरिका में पशुओं को अधिक से अधिक दुधारू बनाने के लिए उन्हें एनिमल डाइट तक दी जाती है। ऐसे में अमेरिकी डेयरी उत्पादों को धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन जीने वाले आम भारतीय कैसे अपना लेंगे? क्योंकि अमेरिकी डेयरी प्रोडक्ट नॉन वेजीटेबल श्रेणी में आते हैं और जबकि हम व्रत उपवास में दूध, दही का इस्तेमाल करते हैं, तो सवाल सिर्फ व्यापार का ही नहीं बल्कि हमारी जीवन संस्कृति का भी है।
ऐसे में हम महज राजनीतिक दबाव में आकर अपने मूल्यों से सांस्कृतिक समझौता कैसे कर लें? अमेरिका सोचता है कि वह दुनिया का बॉस है, जो अमेरिका के साथ नहीं है, वह उसके खिलाफ है। अमेरिका अपने सहयोगी देशों को अपना आज्ञाकारी, पालतू समझता है, बराबर का साझेदार नहीं। ट्रंप खुद भारत को पिछलग्गू मानने की बातें कई बार कर चुके हैं। 2020 में उन्होंने कहा था, ‘मोदी मेरे दोस्त हैं, लेकिन मैं बराबरी का व्यापार चाहता हूं यानी दोस्ती के नाम पर वो हम पर व्यापारिक दबाव डाल रहे हैं।’ जब भारत क्वॉड का हिस्सा होते हुए भी रूस से रक्षा समझौते करता है, ईरान और रूस से तेल खरीदता है तो ट्रंप तिलमिला जाते हैं।
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– जब हम कहते हैं कि हमें हथियार तो बेचो, पर तकनीक भी दो, तो मुकर जाते – हैं। 30 जुलाई को इसरो के सैटेलाइट व्हीकल से नासा और इसरो के साझे – रणनीतिक सहयोग वाले सैटेलाइट को भेजा गया। उसे भेजने के लिए भारत – 20 साल इसलिए पिछड़ गया, क्योंकि अमेरिका ने हामी भरकर भी हमें – क्रायोजनिक इंजन की तकनीक देने से मना कर दिया था। हमने उसकी बात न – मान करके पोखरण परीक्षण भी किया था। कुल मिलाकर अमेरिका अपनी शर्तों – पर हमें अपना पिछलग्गू बनाना चाहता है और इसे दोस्ती का नाम देता है। अमेरिका जिस तरह की टैरिफ ब्लैकमेलिंग कर रहा है, उसका असर हमसे – ज्यादा अमेरिका पर भारी पड़ सकता है।
क्योंकि भारत ने अपने कई व्यापार – सहयोगी खोज लिए हैं। लेकिन अमेरिका को हमारा असहयोग बहुत भारी पड़ेगा। – हम 145 करोड़ के देश हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा जीवंत उपभोक्ता – बाजार है। हम मैन्युफैक्चरिंग, डिजिटल टेक्नोलॉजी, फार्मा और सर्विस सेक्टर – की वैकल्पिक शक्ति हैं। रक्षा, सेमी कंडक्टर और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में भी हमारे – वैकल्पिक साझेदार हैं। अगर अमेरिका नहीं तो यूरोप, रूस, मिडल ईस्ट और – एशिया ब्लॉक हमारे सहयोग के लिए खुले हुए हैं। ग्लोबल सप्लाई चेन में भारत -एक महत्वपूर्ण कड़ी है। इन सबको देखते हुए ऐसा न हो कि टैरिफ ब्लैकमेलिंग अमेरिका को ही भारी पड़ जाए।
लेख- लोकमित्र गौतम के द्वारा