रतन टाटा (डिजाइन फोटो)
एक शेर है- हजारों साल नर्गिस अपनी मजबूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। बिरले ही होते हैं ऐसे उद्योगपति जो आम आदमी ही नहीं मूक प्राणियों के सरोकार की भी चिंता करते हैं और मुनाफा कमाने के नशे में न डूबकर परोपकार को प्राथमिकता देते हैं। इन्हीं गुणों ने टाटा को सचमुच भारत का ‘रतन’ बनाया था।
टाटा जैसी साख शायद ही किसी उद्योग घराने की हो। आज भी लोग टाटा स्टील की मजबूती पर सबसे ज्यादा विश्वास रखते हैं। आम आदमी पर फोकस करते हुए टाटा चाय और टाटा का नमक सीधे किचन में जा पहुंचे। सामान्यजन को स्कूटर से अपग्रेड कर कारवाला बनाने के लिए ‘नैनो’ बनाई। यह बात अलग है कि लोगों ने सस्ती और अच्छी कार के टैग को स्वीकार नहीं किया क्योंकि कार को लोग अपने स्टेटस से जोड़कर देखते हैं।
उन्हें समझ में नहीं आया कि जगुआर लैंडरोवर बनाने के अधिकार खरीदनेवाले टाटा को ‘लखटकिया’ कार बनाने की क्यों सूझी? टाटा ने मध्यमवर्ग की जरूरत के लिए ‘जिंजर’ जैसी बजट होटल शृंखला बनाई। पहले परोपकार और बाद में मुनाफा का चिंतन रखनेवाला क्या टाटा जैसा उद्योगपति कभी मिलेगा? कमाई से जुड़े एक तुलनात्मक सवाल का उन्होंने एक वाक्य में सारगर्भित जवाब दिया था कि मैं उद्योगपति हूं जबकि अंबानी बिजनेसमैन है।
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टाटा का परोपकारी स्वभाव बिल गेट्स और वादेन बफे के समान था। टाटा ट्रस्ट सामाजिक सरोकारों में प्रमुखता से योगदान देता है। दूरदृष्टा इतने थे कि नए व्यवसाय में प्रवेश करने पर उसकी आय 4 अरब डॉलर से बढ़ाकर 100 अरब डॉलर तक पहुंचा दी। 21 वर्षों में उन्होंने 60 बड़े डील किए और टाटा ग्रुप को और मजबूत किया।
उनमें संवेदना इतनी थी कि मुंबई के महालक्ष्मी में 98,000 वर्ग फीट जगह में कुत्ते, बिल्ली, खरगोश आदि के लिए 24 घंटे मेडिकल केयर वाला अस्पताल खोल दिया। समय के साथ चलनेवाले रतन टाटा नवोन्मेष को बढ़ावा देते थे। उन्होंने अपस्टाक्स, फर्स्ट क्राय, ओला इले्ट्रिरक जैसे स्टार्टअप्स में निवेश किया। अपने ‘मेंटर’ जेआरडी टाटा के समान उन्होंने भी राजनीति से दूरी बरती। रतन टाटा के संभावित उत्तराधिकारी अनेक हैं जिनकी अपनी काबिलियत है लेकिन फिर भी शंका है कि टाटा जैसा अनमोल रतन मिलना मुश्किल ही है।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा