मुंबई मनपा चुनाव को लेकर BJP की रणनीति (सौ.डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: मुंबई महानगरपालिका चुनाव की ओर सभी की नजरें लगी रहेंगी। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पहले ही अपनी रणनीति बना रखी है। उन्होंने कहा है कि महायुति के रूप में चुनाव लड़ा जाएगा और जहां एकता नहीं होगी वहां मैत्रिपूर्ण मुकाबला किया जाएगा। यदि बीजेपी और शिवसेना शिंदे के उम्मीदवार एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े तो भी जीत महायुति की होगी। कांग्रेस में भी पहले 2 गुट लड़ते थे और किसी तीसरे को मौका नहीं देते थे। पुणे, पिंपरी चिंचवड में बीजेपी और अजीत पवार की राकांपा इसी फार्मूले से आमने-सामने उतर रही है। मुंबई में उद्धव व राज ठाकरे के वोट फोड़ने की तैयारी फडणवीस ने कर ली है।
यदि शिंदे सेना ने 4-5 हजार वोट ले लिए तो ठाकरे सेना की 10 से 15 जगह कम हो जाएंगी। अजीत पवार की पार्टी को अलग खड़े रहने के लिए कहा गया है। माना जाता है कि अजीत के उम्मीदवार ठाकरे बंधुओं के वोट खा जाएंगे। देखना है कि कौन सा मुद्दा चलेगा! ठाकरे भाइयों की मराठी अस्मिता का या बीजेपी का विकास का मुद्दा! मुंबई में मराठी भाषी मतदाता 38 प्रतिशत हैं। दूसरे क्रमांक पर मुस्लिम मतदाता 23 प्रतिशत हैं। विधानसभा चुनाव में मुस्लिमों ने शिवसेना (उद्धव) के पक्ष में भारी मतदान किया था। 50 वार्ड में मुस्लिम मतदाता नतीजे को प्रभावित कर सकते हैं। बीजेपी सतर्क कर रही है कि यदि शिवसेना (उद्धव) जीती तो कोई मुस्लिम महापौर बन सकता है। मुंबई में 17 प्रतिशत उत्तर भारतीय मतदाता हैं जिनमें 15 प्रतिशत गुजराती व राजस्थानी हैं। मुंबई महापालिका में कुल 227 सीटें हैं। बहुमत के लिए 114 नगरसेवक चाहिए।
पिछले चुनाव में बीजेपी को 82 सीटें मिली थीं। इस बार बीजेपी की तैयारी और व्यूहरचना काफी सधी हुई है। मुंबई का चुनावी मुकाबला काफी तनातनी का होने की उम्मीद है। इस चुनाव में भी शरद पवार की एनसीपी की कोई खास ताकत नहीं है। मराठी अस्मिता के मुद्दे पर उद्धव व राज ठाकरे साथ आए हैं लेकिन सीट के बंटवारे पर उनकी कितनी सहमति हो पाएगी? मनसे के पास एक भी सांसद, विधायक या नगरसेवक नहीं है। ऐसी स्थिति में उद्धव मनसे के लिए कौन सी व कितनी सीट छोड़ने को राजी होंगे? शिवसेना टूटने के बाद 40 से अधिक पूर्व नगरसेवक एकनाथ शिंदे के साथ चले गए थे। उद्धव ठाकरे के पास सिर्फ 30 पूर्व नगरसेवक रह गए हैं।
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ऐसे में उद्धव मनसे को क्या दे सकते हैं? एकजुट होने की घोषणा करने के बाद अब वह अलग-अलग लड़ भी नहीं सकते। प्रचार के लिए केवल 13 दिनों का समय मिल पाएगा। फिलहाल ठाकरे बंधुओं की कोई स्पष्ट रणनीति या तैयारी नजर नहीं आ रही है। सिर्फ यह सोचने से काम नहीं चलेगा कि जनता की हमारे प्रति सहानुभूति है। मैदान में जाए बगैर वोट नहीं मिलते।
लेख-चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा