देश की अधिकांश पार्टियों में वंशवाद का बोलबाला (सौ. डिजाइन फोटो)
नवभारत डिजिटल डेस्क: देश की प्रायः सभी पार्टियों में वंशवादी राजनीति का बोलबाला है। 145 करोड़ आबादी के भारत में 149 परिवार राज करते हैं जिनके एक से अधिक विधायक या सांसद है। कांग्रेस की हालत पहले से पतली हो चुकी है लेकिन उसके 857 विधायक व सांसद वंशवादी हैं जिनका प्रतिशत 33.2 है। दूसरी ओर बीजेपी के 2,078 विधायक-सांसद वंशवादी राजनीति की उपज हैं लेकिन उनका प्रतिशत 18.6 है। इसके अलावा सपा, राजद, जदयू, डीएमके, टीडीपी में भी पार्टी और सरकार दोनों में वंशवाद है। केवल वामपंथी पार्टियां इसका अपवाद हैं।
जब परिवारवादी राजनीति चलती रहेगी तथा सांसद और विधायक की पत्नी, बेटे या अन्य परिजन को यह विरासत मिलती रहेगी तो नई प्रतिभा को स्थान कैसे मिलेगा और नए चेहरे कैसे सामने आएंगे? पार्टी में जिसका वर्चस्व है वह नेता अपने परिजनों को आगे बढ़ाता है। देश की आधी आबादी 30 वर्ष से कम उम्र की है। उनमें से कितने युवा राजनीति में आने तथा कमजोर वर्ग की आवाज बनने में दिलचस्पी रखते हैं? वंशवादी राजनीति का अर्थ है नेता का बेटा ही नेता बनेगा। उसे कोई मेहनत या संघर्ष करने की जरूरत नहीं पड़ती। उसके आगे आने का पार्टी में कोई विरोध नहीं करता। उसे बेहद आसानी से चुनाव में टिकट मिल जाता है। कोई जरूरी नहीं है कि नेता पुत्र अपने पिता या पूर्वजों के समान ही कुशल व गुणवान हो। देश की राजनीति में किसी बड़े नेता का प्रभाव व लोकप्रियता बढ़ जाने पर पार्टी उसके वंशजों को आगे बढ़ाने लगती है।
इसी से वंशवाद पनपता है। देश में नेताओं की पहली पीढी की प्रतिष्ठा इसलिए थी क्योंकि उसने आजादी की लड़ाई लड़ी थी। बाद में पार्टियां टूटकर नए दल बनते चले गए। चुनाव, पार्टी की फूट, किसी नेता की बगावत भी इसके लिए जिम्मेदार रहे। अब ऐसा समय आ गया है कि पार्टियों को दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, अन्य पिछड़े वर्गों तथा महिलाओं की आवाज सुननी पड़ रही है। इसलिए पार्टियों को वंशवाद से बाहर निकलकर इन वर्गों के बारे में सोचना होगा। सामाजिक न्याय का तकाजा लेकर भी नई पार्टियां बनने लगी हैं। इतने पर भी देखा गया है कि पिछड़ों और दलितों की पार्टी में भी वंशवाद पनपने लगा है। एक परिवार विशेष पार्टी के पदों पर कब्जा जमा लेता है।
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विचारधारा व कैडर आधारित पार्टियां चाहें तो अपने यहां वंशवादी राजनीति को रोक सकती हैं लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। नेता का बेटा, बेटी बचपन से राजनीतिक माहौल को देखते रहने की वजह से इसे जल्दी सीख-समझ लेते हैं। कभी ऐसा भी होता है कि किसी प्रभावशाली नेता के निधन पर सहानुभूति के वोट हासिल करने के उद्देश्य से रिक्त सीट पर उसकी पत्नी या संतान को उम्मीदवारी दे दी जाती है। इस वजह से भी राजनीति में वंशवाद पनपता ही नहीं, मजबूत होता चला जाता है।
लेख-चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा