(डिजाइन फोटो)
पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, स्विटजरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक मंच की बैठक में भाग लेने गए महायुति सरकार के प्रतिनिधि मंडल द्वारा की गई उधारी से महाराष्ट्र की किरकिरी हो रही है। स्विटजरलैंड की एक सेवा प्रदान करनेवाली कंपनी को प्रतिनिधि मंडल के खाने-पीने और ठहरने का इंतजाम करने की जिम्मेदारी दी गई थी। ये प्रतिनिधि खा-पीकर खिसक गए। रकम का भुगतान नहीं होने से उस कंपनी ने 1.58 करोड़ रुपए के बिल के पेमेंट के लिए महाराष्ट्र सरकार को कानूनी नोटिस भेजा है।’’
हमने कहा, ‘‘कंपनी ने राष्ट्र ही नहीं महाराष्ट्र के साथ गुस्ताखी की है। क्या इसे हास्पिटैलिटी या आतिथ्य सत्कार कहते हैं? मेहमानों से भी कभी पैसा मांगा जाता है? महायुति के प्रतिनिधियों को अतिथि देवो भव मानकर बिल की रकम भूल जानी चाहिए थी। बड़े लोगों से भी कभी बिल का पैसा मांगा जाता है? लाडकी बहीण योजना चलानेवाली दिलदार और महिलाओं के प्रति संवेदनशील महाविकास आघाड़ी सरकार को मामूली सी रकम के लिए तकाजा करना क्या शोभा देता है? यह सभ्यता और शिष्टाचार के खिलाफ है!’’
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पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, मुफ्तखोरी की मानसिकता का समर्थन मत कीजिए। कंपनी को खाने-पीने और अच्छी होटल में ठहराने का ठेका दिया गया था। जब उसने सर्विस प्रोवाइड की है तो बिल मांगेंगे ही। पैसा नहीं दोगे तो लीगल नोटिस देगी। जरा सोचकर देखिए कि कोई आदमी किसी होटल में खा-पी लेता है, वहां ठहर भी जाता है और बिल पेमेंट नहीं करता। अपने खाली जेब दिखा देता है तो होटल वाले उससे जूठे बर्तन व प्लेट साफ करवाते हैं। उससे पोछा लगाने के लिए भी मजबूर कर सकते हैं। कभी-कभी तो होटलवाले ऐसे मुफ्तखोर के कपड़े उतार कर चड्डी-बनियान में बाहर निकाल देते हैं।’’
हमने कहा, ‘‘ऐसा सामान्य आदमी के साथ हो सकता है? यदि मुफ्तखोरी करनेवाला वीआईपी है तो उसे कौन रोक सकता है? बड़े लोगों का मिजाज अलग रहता है। उनसे बिल मांगना उनकी तौहीन करने जैसा है। उन्होंने आज तक किसी का पैसा दिया है जो इस कंपनी का पैसा देंगे? सरकार पैसा वसूल करने के लिए रहती है, बिल अदा करने के लिए नहीं। काट छांट कर कुछ रकम दे दे तो समझो बड़ी बात है!
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी द्वारा