बिहार की राजनीति का अपराधीकरण (डिजाइन फोटो)
Criminalisation Of Bihar Politics: क्या जनता उम्मीद करे कि बिहार राजनीति के अपराधीकरण से मुक्त हो जाएगा और चुनाव के बाद ऐसे चेहरे सरकार और विपक्ष में आएंगे जो निष्कलंक हों? यह कोरी कल्पना ही है कि राजनीति की धारा स्वच्छ हो पाएगी।
बिहार में बाहुबलियों की तादाद कम नहीं है। मोकामा में जदयू के उम्मीदवार अनंत सिंह हाल ही में हत्या के आरोप में गिरफ्तार किए गए हैं। उनके अपराधिक बैकग्राउंड के बावजूद सत्तारूढ पार्टी ने उन्हें उम्मीदवारी दी थी। उनका मुकाबला सूरजभान सिंह की पत्नी से था जो कि हत्या के आरोप में जेल में सजा काट रहा है। रतीलाल यादव नामक दबंग प्रत्याशी के प्रचार के लिए लालू यादव अपनी बीमारी के बावजूद आगे आए।
बिहार की राजनीति में अन्य अपराधी चेहरे हैं- मुन्ना शुक्ला, प्रदीप महतो व आनंद मोहन! एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) के अनुसार देश के लगभग 40 प्रतिशत सांसदों ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले बकाया होने की घोषणा की है। उनमें से 25 प्रतिशत पर हत्या, अपहरण और महिलाओं के खिलाफ अपराध के गंभीर आरोप हैं।
2004 से 2019 के बीच ऐसे आरोपों से घिरे सांसद दोबारा चुने गए। इनमें से कुछ तो मंत्री भी बन गए। आपराधिक बैकग्राउंड के व्यक्ति को राजनीतिक पार्टियां इसलिए उम्मीदवार बनाती हैं क्योंकि दबंग होने से वह जेल में रहकर भी चुनाव जीत जाता है।
भयभीत मतदाता जानते हैं कि उसे वोट नहीं दिया तो वह क्षेत्र में आकर कोहराम मचा देगा। उसके पास पैसा भी बहुत होता है इसलिए वह पार्टी को बेहिसाबी धन के अलावा मसल पावर भी देता है।
अपराधीकरण की राजनीति पनपने की एक वजह जातिगत टकराव भी है। जो अपराधी नेता का चोला पहन लेता है, उसका पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ पाती। राजनीतिक शक्ति मिलने पर ऐसे तत्व अपने अपराध का दायरा बढ़ा लेते हैं। वह बड़े भूमाफिया या खनन माफिया बन जाते हैं अथवा अपहरण का रैकेट चलाते हैं।
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यदि एक पार्टी उन्हें टिकट नहीं देगी तो दूसरी पार्टी देगी क्योंकि अपने चुनाव क्षेत्र में आतंक की वजह से उनकी जीतने की क्षमता अधिक होती है। अपराधी तत्वों को निर्वाचित कर विधायक, सांसद या मंत्री बनने की छूट देना लोकतंत्र का मखौल है। ऐसे लोग अपने अपराध पर पर्दा डालने और राजनीतिक संरक्षण पाने के उद्देश्य से नेतागिरी की राह पकड़ते हैं।
राजनीतिक पार्टियां आपस में कड़ी प्रतिस्पर्धा तथा चुनाव प्रचार की भारी लागत को देखते हुए मेजारिटी हासिल करने के लिए ऐसे आपराधिक छवि के लोगों को चुनाव में उम्मीदवारी देती हैं। इस बारे में वोहरा समिति की रिपोर्ट ने सुझाव दिए थे कि राजनीति के अपराधीकरण पर कैसे अंकुश लगाया जाए लेकिन उस पर कितना अमल हो पाया?
राजनीतिक शक्ति मिलने पर ऐसे तत्व अपने अपराध का दायरा बढ़ा लेते हैं। वह बड़े भूमाफिया या खनन माफिया बन जाते हैं अथवा अपहरण का रैकेट चलाते हैं। यदि एक पार्टी उन्हें टिकट नहीं देगी तो दूसरी पार्टी देगी क्योंकि अपने चुनाव क्षेत्र में आतंक की वजह से उनकी जीतने की क्षमता अधिक होती है।
अपराधी तत्वों को निर्वाचित कर विधायक, सांसद या मंत्री बनने की छूट देना लोकतंत्र का मखौल है। ऐसे लोग अपने अपराध पर पर्दा डालने और राजनीतिक संरक्षण पाने के उद्देश्य से नेतागिरी की राह पकड़ते हैं।
लेख- चंद्रमोहन द्विवेदी के द्वारा