
Premanand Ji Maharaj Cartoon Image (सौ. Pinterest)
Premanand Ji Maharaj ne Dan Punya ka bataya Niyam: कलियुग में धर्म, भक्ति और दान की परिभाषा को लेकर समाज में कई भ्रांतियां फैल चुकी हैं। इसी संदर्भ में श्री प्रेमानंद जी महाराज ने दान-पुण्य, सत्संग, कर्म और भक्ति को लेकर एक अत्यंत गहन और चेतना जगाने वाला संदेश दिया है। उनका कहना है कि दिखावे के लिए किया गया कोई भी पुण्य आत्मिक उन्नति नहीं करता।
श्री प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं, आज के समय में लोग दान इस भावना से करते हैं कि समाज में नाम हो जाए। कहीं पंखे पर नाम लिखवाना, कहीं हैंडपंप पर शिलालेख लगवाना या दूसरों से प्रशंसा की अपेक्षा रखना ऐसा दान आध्यात्मिक दृष्टि से निष्फल हो जाता है। सच्चा दान वही है, जिसे देने के बाद व्यक्ति स्वयं भी भूल जाए। जब यह भाव आ जाए कि “सब कुछ भगवान का है”, तभी अहंकार मिटता है और पुण्य फलित होता है।
महाराज बताते हैं कि सत्संग स्वयं में ईश्वर प्राप्ति का संपूर्ण मार्ग है। यह बड़े-बड़े यज्ञ, व्रत या तीर्थों से भी अधिक प्रभावशाली हो सकता है, लेकिन शर्त यह है कि उसे विनम्र हृदय से सुना जाए। केवल वर्षों तक सत्संग सुन लेना पर्याप्त नहीं, जब तक उसका असर स्वभाव में न दिखे। जो व्यक्ति वास्तव में सत्संग को जीता है, वह भूखे पशु को देखकर करुणा दिखाता है, न कि नियमों की आड़ में संवेदनहीन बनता है। बिना आंतरिक परिवर्तन के बीस साल का सत्संग भी व्यर्थ हो सकता है।
मानव का पतन इसलिए होता है क्योंकि उसकी इंद्रियां बाहर की ओर भागती रहती हैं। हम शरीर, परिवार और धन को स्थायी मान लेते हैं, जबकि ये एक क्षण में नष्ट हो सकते हैं। लोग कहते हैं, “मैंने इस जीवन में क्या गलत किया?”, लेकिन महाराज स्पष्ट कहते हैं कि ईश्वर का न्याय पूर्णतः निष्पक्ष है। पिछले जन्मों के छिपे पाप, जिनका प्रायश्चित नहीं हुआ, वही दुख बनकर सामने आते हैं। ईश्वर के दरबार में न कोई सिफारिश चलती है, न रिश्वत हर कर्म का फल भोगना ही पड़ता है।
कुछ लोग तर्क देते हैं कि जब भगवान हर जगह हैं, तो तीर्थ जाने की क्या आवश्यकता? इस पर श्री प्रेमानंद जी महाराज सुंदर उदाहरण देते हैं। जैसे दूध में हर जगह घी होता है, पर पकाने की प्रक्रिया के बिना घी नहीं मिलता। गाय के पूरे शरीर में दूध होता है, पर वह थन से ही प्राप्त होता है। इसी तरह वृंदावन, काशी और द्वारका जैसे तीर्थ दैवी चेतना के विशेष केंद्र हैं, जहां भगवान की अनुभूति सहज होती है। बुद्धि के अहंकार में इनका तिरस्कार आध्यात्मिक शून्यता को जन्म देता है।
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कलियुग में कठोर तप संभव नहीं, इसलिए सभी शास्त्रों का सार है पूर्ण शरणागति। महाराज कहते हैं कि हमें उन लोगों से अपने कान बचाने चाहिए जो भगवान के स्वरूप, नाम और संतों की निंदा करते हैं। सबसे सरल और शक्तिशाली साधन है “राधा राधा” का निरंतर स्मरण। यदि इस नाम को पकड़ लिया और चिंताएं प्रभु को सौंप दीं, तो इच्छाएं स्वयं समाप्त हो जाएंगी। गुरु की कृपा और नाम की शक्ति से यही जन्म अंतिम बन सकता है। जैसे हवा में रेडियो तरंगें हर जगह होती हैं, लेकिन सही फ्रीक्वेंसी पर ही संगीत सुनाई देता है वैसे ही तीर्थ और नाम-स्मरण वह माध्यम हैं, जहां हृदय ईश्वर की तरंगों से जुड़ जाता है।






