(सौजन्य सोशल मीडिया)
पौराणिक कथाओं के अनुसार दैत्यगुरु शुक्राचार्य भगवान शिव के परम भक्त थे। एक बार दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिये घोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की। आज हम इस दिद्या को महामृत्युंजय मंत्र के नाम से जानते हैं।
कहते हैं कि शुक्राचार्य ने जिस स्थान पर यह तपस्या की थी वह स्थान असम के नगांव जिले में स्थित है। नगांव जिले में अब दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे ऊंचा लिंगाकार मंदिर है जो 126 फुट ऊंचा है। इस मंदिर का नाम महामृत्युंजय मंदिर है। यह मंदिर धार्मिक दृष्टि से तो खास है ही लेकिन इसकी स्थापत्य कला इसे और भी खास बनाती है।
स्थापत्य की दृष्टि से विशेष यह मंदिर शिवलिंग के रूप में बना हुआ है जो अपने आप में अद्वितीय है। इस कारण से यह मंदिर लोगों को अपनी ओर आकर्षिक करता है। मान्यता है कि महाशिवरात्रि और पवित्र श्रावण मास में यहां शिवजी की आराधना करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है और भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती है। शुक्राचार्य की तपोस्थली माने जाने वाले इस मंदिर को लेकर यह भी मान्यता है कि यहां शिव आराधना करने से साधक के जीवन की हर समस्या का समाधान हो जाता है।
शिवलिंगनुमा इस मंदिर के प्रमुख आचार्य मोहन उपाध्याय हैं। इस मंदिर के बारे वे बताते हैं कि असम के स्वामी भृगुगिरी जी महाराज को एक बार स्वप्न आया था कि इस स्थान के नीचे एक वृहद शिवलिंग दबा हुआ है। स्वप्न के आधार पर जब अगले दिन खुदाई करके देखा गया तो सच में वहां नीचे एक विशाल शिवलिंग मिला जो बहुत समय बीत जाने के कारण खंडित अवस्था में था। तब इस शिवलिंग के ठीक ऊपर एक अन्य शिवलिंग स्थापित किया गया और इस तरह महामृत्युंजय मंदिर का निर्माण हुआ।
लिंगाकार मंदिर को लेकर मंदिर कमेटी से जुड़े एक सदस्य बताते हैं कि यह शिवलिंग नहीं बल्कि शिवलिंग की आकृति का मंदिर है। उन्होंने बताया कि मंदिर को बनाने में करीब 18 साल का समय लगा। साल 2003 में स्वामी भृगु गिरी महाराज द्वारा मंदिर निर्माण का काम शुरू किया गया था। साल 2019 में उनकी मृत्यु के बाद सरकार की मदद से इस मंदिर का निर्माण कार्य पूरा कराया गया।
साल 2021 में इस मंदिर की प्राण- प्रतिष्ठा करवाई गई। भृगु गिरी महाराज जी की इच्छा के अनुसार मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा दक्षिण भारतीय पंडितों से करवाई गई जिसमें 200 दक्षिण भारतीय पंडितों ने भाग लिया। इस दौरान 108 कुंडीय यज्ञ भी किया गया। महामृत्युंजय मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में 200 उत्तर भारतीय पंडितों ने यज्ञ किया और 200 दक्षिण भारतीय पंडितों ने मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा की।