लालू येदव और तेज प्रताप यादव, फोटो - सोशल मीडिया
पटना : राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने अपने बड़े बेटे तेज प्रताप यादव को पार्टी से 6 सालों के लिए बाहर का रास्ता दिखा दिया है। यह फैसला न सिर्फ लालू परिवार में चल रही अंदरूनी कलह को सामने लाता है, बल्कि इस साल के अंत में होने वाले बिहार विधानसभा चुनावों के समीकरणों को भी प्रभावित कर सकता है। खासकर, हसनपुर और महुआ जैसी सीटों पर तेज प्रताप के भविष्य को लेकर चर्चाएं तेज हो गई हैं।
तेज प्रताप यादव ने 2015 में महुआ विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर राजनीतिक पारी की शुरुआत की थी। इसके बाद उन्होंने 2020 में समस्तीपुर जिले की हसनपुर सीट से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। हालांकि, तब भी उनकी प्राथमिक पसंद महुआ ही थी, लेकिन पार्टी ने वहां से मुकेश रौशन को टिकट दिया था। अब जब तेज प्रताप RJD से बाहर हो चुके हैं, तो सवाल उठता है कि क्या वे एक बार फिर महुआ की ओर लौटेंगे?
तेज प्रताप की छवि एक बागी नेता की बन चुकी है, जो विवादों, भावनात्मक बयानों और पारिवारिक तनाव के कारण हमेशा सुर्खियों में रहते हैं। उनके पास राजनीतिक अनुभव जरूर है, लेकिन पार्टी से बाहर होने के बाद क्या उनके पास जनाधार बचा है, यह बड़ा सवाल है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, तेज प्रताप अगला चुनाव महुआ से ही लड़ सकते हैं, जहां उन्होंने पहले काफी काम किया है और खुद को मजबूत उम्मीदवार मानते हैं।
हालांकि, RJD से बाहर होकर चुनाव लड़ना आसान नहीं होगा। लेकिन सियासी गलियारों में चर्चा है कि अगर तेज प्रताप महुआ से निर्दलीय या किसी नई पार्टी के बैनर तले मैदान में उतरते हैं, तो RJD उस सीट को अपने किसी छोटे सहयोगी दल को देकर खुद वहां से उम्मीदवार नहीं उतारेगी। इससे तेज प्रताप की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।
हसनपुर सीट पर यादव, मुस्लिम और कुशवाहा मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। तेज प्रताप के अलग होने से यादव वोटों का बंटवारा हो सकता है, जिससे NDA को मजबूती मिल सकती है। वहीं महुआ में यादव और मुस्लिम वोटों के अलावा पासवान व रविदास समुदाय भी प्रभावी हैं। यह सीट अब तेज प्रताप बनाम RJD की सीधी लड़ाई बन सकती है।
तेज प्रताप के अलग होने को NDA एक अवसर के रूप में देख रहा है। भाजपा और जेडीयू की नजर उन यादव वोटों पर है जो तेजस्वी और तेज प्रताप के बीच बंट सकते हैं। अगर तेज प्रताप यह साबित कर पाते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है, तो वे सहानुभूति लहर का लाभ उठा सकते हैं। ऐसे में यह लड़ाई सिर्फ दो सीटों की नहीं बल्कि RJD की साख की भी हो जाएगी।
कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह पारिवारिक ड्रामा एक सोची-समझी चुनावी रणनीति भी हो सकती है, लेकिन अगर यह वाकई में असली टूट है, तो बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।