चमत्कारी कपिलेश्वर शिव मंदिर (सौजन्यः सोशल मीडिया)
Yavatmal News: नेर तहसील के सातेफल हेमाडपंथी वास्तुकला का एक अद्भुत शिव मंदिर है। जहां आस्था ही भक्ति है शायद 600 या 700 साल पुराना यह मंदिर आज भी बहुत ही अच्छी स्थिति में है। मंदिर के अंदर सुंदर शिवलिंग की प्रतिमा है, जिस पर नाग देवता का छत्र है। इस मंदिर की लोकमान्यता अनुसार 600-700 साल पहले, समृद्ध किसान देशमुख परिवार सातेफल गांव में रहता था। वे चिंतित थे कि उनकी कोई संतान नहीं थी। वे ब्राह्मणों के पास गए और ब्राह्मणों ने उन्हें सुझाव दिया कि आपको पांच सोमवार अपने गांव के कपिलेश्वर मंदिर में जाना चाहिए और पूजा अर्चना करनी चाहिए, उस समय, मंदिर घने जंगल से घिरा हुआ था।
मंदिर तक जाने के लिए रास्ता भी नहीं था। किसान देशमुख ने सबसे पहले रास्ता बनाया और ब्राह्मणों के कहने अनुसार पांच सोमवार तक मंदिर में पूजा अर्चना करना शुरू की। देशमुख ने भगवान शिव से मन्नत मांगी की मुझे अगर संतान की प्राप्ति होती है तो मैं साल के 12 महीने यहां पर तेल का दिया जलाता रहूंगा। और हर सोमवार को घी का दिया जलाऊंगा। और सावन के महीने में एक महीना घी का दिया जलाते रहूंगा। जब पांचवें सोमवार को किसान देशमुख मंदिर पहुंचे तो उन्हें प्रसाद के रूप में वहां हीरा मिला तभी उनकी पत्नी को गर्भधारण हो गई और उन्हें पुत्र रत्न प्राप्ति हुई।
देशमुख परिवार की वंशावली बढ़ने लगी। देशमुख ने मंदिर को 21 एकड़ जमीन दानमें दी। किसान देशमुख के बाद 1930 के आसपास उनके के परपोते नारायण सिंग देशमुख के पास विरासत में आई। अंतत 21 एकड़ की जमीन की आय पर 108 एकड़ जमीन मंदिर के पास हो चुकी थी उस समय मंदिर कि जमीन की आय पर महाशिवरात्रि के अवसर पर भव्य यात्रा काकड़ आरती, कीर्तन, भागवत सप्ताह, शंकरपट कुश्ती दंगल जैसी स्पर्धा होती थी जिसमें दूर-दूर से नागपुर जैसे शहरों से पहलवान आने लगे और इन सभी का फिल्मांकन किया गया और कारंजा जैसे शहरों में सिनेमाघरों इंटरवल के दौरान में दिखाया गया।
मंदिर की चर्चा पंच कृषि में होने लगी उस समय संस्थान का पंजीकरण नहीं होने के कारण सीलिंग एक्ट 1976 में सीलिंग कानून आने के बाद मंदिर की आधे से ज्यादा जमीन सरकार के पास चली गई। और बची हुई जमीन मंदिर के पास है।
आज भी किसान देशमुख परिवार कपिलेश्वर संस्थान के माध्यम से मंदिर की देखभाल करता है। 1975 से कपिलेश्वर संस्थान का काम उनके पुत्र डॉक्टर यशवंत सिंग देशमुख संभालते हैं जो अब यवतमाल रहते हैं। जमीन किराए पर देकर उससे मिलने वाले पैसों से मंदिर की देखभाल और पुजारी की तनखाह और अन्य खचों को पूरा किया जाता है। यहां आज भी महाशिवरात्रि के पावन मौके पर भागवत सप्ताह कीर्तन और काकड़ आरती नगर भोजन का आयोजन किया जाता़ है। इस आयोजन को देखने आज भी दूर-दूर से कई श्रद्धालु आते हैं।
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आस्था श्रद्धा भक्ति से यहां दूर दूर से लोग आकर नतमस्तक होते हैं। हेमाडपंथी स्थापत्य शैली कला प्रेमी लोगों के लिए किसी पर्व से कम नहीं है। हेमाडपंथी महाराष्ट्र की एक महत्वपूर्ण वास्तुकला शैली है। जो अपनी जटिल नक्काशी और वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है। हेमाडपंथी कला की शुरुआत जब यादव वंश का राजा कृष्णदेव राय महाराष्ट्र में शासन कर रहे थे तब हुई थी।
इस कला को हेमाडपंथ नामक एक वास्तुकार ने विकसित किया था, जो कृष्णदेव राय के दरबार में काम करता था। हेमाडपंथी कला की विशेषता है इसकी वास्तुकला और नक्काशी, जो मंदिरों और अन्य भवनों में देखी जा सकती है। इस कला में पत्थर का उपयोग करके जटिल डिजाइन और नक्काशी बनाई जाती थी। इसका प्रभाव महाराष्ट्र और आसपास के क्षेत्रों में देखा जा सकता है। नेर से २२ किलोमीटर की दूरी पर कारंजा रोड पर सातेफल गांव है, जहां यह मंदिर आज भी बहुत ही अच्छी स्थिति में खड़ा है।