
नागपुर मनपा चुनाव (सौजन्य-सोशल मीडिया)
Nagpur municipal Election: नागपुर मनपा चुनाव की सरगर्मी अब अपने चरम पर है। प्रमुख राजनीतिक दल जहां जाति के जुगाड़ में लगे हैं वहीं सिटी का उत्तर भारतीय समाज भी पूरे हौसले के साथ सभी प्रमुख दलों के फैसलों पर नजर गड़ाए हुए है।
उत्तर भारतीय समाज ने दो टूक चेतावनी दी है कि 2024 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह पश्चिम नागपुर में समाज ने खेला किया था, उसी पैटर्न को वह पूरे शहर में लागू करने जा रहा है। जाहिर है कि राजनीतिक दलों के निर्णायक नेतागण भी इस जोखिम को समझ रहे हैं और वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे कुछ भी गलत संदेश जाए।
वैसे तो पश्चिम नागपुर विधानसभा चुनाव क्षेत्र में 1990 के दशक से ही हिन्दी भाषियों और विशेष रूप से उत्तर भारतीयों का दबदबा रहा है। एक समय था जब पश्चिम नागपुर की सीट पर कांग्रेस के बड़े नेता गेव आवारी को पराजित करने के लिए दिलीप चौधरी को मैदान में उतारा गया था। बाद में यह प्रयोग मनपा चुनाव में 1992 में देखने को मिला जब स्थायी समिति के अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस प्रत्याशी नाना मोहोड़ को हराने के लिए उत्तर भारतीय पहलवान जंग बहादुर सिंह अखाड़े में थे।
उन्हें उतने ही वोट मिले थे जितने निर्दलीय रघुनाथ मालीकर की पार्षद के रूप में पारी शुरू करने के लिए पर्याप्त थे। 2024 के विधानसभा चुनाव में पूरे महाराष्ट्र में बीजेपी और महायुति के पक्ष में सुनामी चल रही थी लेकिन पश्चिम नागपुर की कहानी अलग थी। इस सीट पर बीजेपी की ओर से किसी मजबूत उत्तर भारतीय चेहरे को मैदान में उतारने की बात कही गई थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
परिणामस्वरूप प्रभाग-9, 10, 11 और 12 में बहुसंख्यक उत्तर भारतीयों ने ऐसा खेला किया कि कांग्रेस के प्रत्याशी विकास ठाकरे विजयी हो गए। यह खेल उत्तर नागपुर में भी हुआ जहां बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ा।
समाज ने विधानसभा चुनाव के ठीक पहले गिट्टीखदान चौक पर हुई एक सभा में नारा बुलंद किया था। जो समाज का, समाज उसका… इस नारे का असर यह हुआ कि अब उत्तर भारतीय समाज का अपना एक वोट बैंक हो गया है। विधानसभा चुनावों में उत्तर भारतीय झटके का असर सबसे ज्यादा बीजेपी को देखने को मिला।
शहर अध्यक्ष के रूप में दयाशंकर तिवारी की नियुक्ति को भी इसका असर बताया जा रहा है। सिर्फ बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस ने भी अपनी संभावित प्रत्याशियों की सूची में हिन्दी भाषियों के नाम रखे हुए हैं। समाज भी अपने मजबूत होते वोट बैंक की बदौलत अब दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अपने लोगों को पावरफुल बनाने की रणनीति में लगा हुआ है।
उत्तर भारतीय सभा के मुखिया रामप्रताप शुक्ला ने कहा कि हिन्दी भाषी समाज को पराया समझा जाता रहा है। उत्तर भारतीय वोटों की बदौलत सत्ता पाने वाले नेता अब तक यूज एंड थ्रो की रणनीति पर काम करते थे। हम भी महाराष्ट्र की पवित्र मिट्टी में ही जन्मे हैं। हमारी 3-4 पीढ़ियां यहां अपने दम पर समाज कार्य में लगी हैं।
इसलिए सत्ता में भी हमारा अधिकार भी बराबरी का बनता है। हर समाज चाहता है कि उसके अपने लोगों को मजबूती मिले। उत्तर भारतीय समाज ने हाल ही में एक बैठक कर यह तय किया है कि मजबूत और चरित्रवान सर्वदलीय उम्मीदवारों को पूरा साथ दिया जाएगा।
ब्राह्मण सेना फाउंडेशन के मुखिया मनीष त्रिवेदी ने कहा कि उत्तर भारतीय समाज किसी का अधिकार नहीं छीन रहा। हमें जब भी मौका मिला हमने अपना 100 प्रतिशत योगदान दिया। नागपुर ही नहीं, विदर्भ और महाराष्ट्र भर में समाज के लोग सामाजिक कार्यों में किसी से पीछे नहीं हैं।
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सिर्फ राजनीति में जानबूझकर पीछे रखे जाने की साजिश की जाती है। सत्ता में हिस्सेदारी देते समय भाषा, जाति और प्रांत का मुद्दा उठाया जाता है। यही वजह है कि समाज में यह भाव बढ़ा है कि जो नेता जैसा व्यवहार करेगा उसे बदले में वैसा ही जवाब मिलेगा।






