
मंदा म्हात्रे और गणेश नाईक (सौजन्य-सोशल मीडिया)
Ganesh Naik vs Manda Mhatre conflict: नवी मुंबई महानगर पालिका (NMMC) चुनाव का बिगुल बजते ही शहर की राजनीति में भारी भूचाल आ गया है। राज्य की सत्ता में एक साथ बैठी भाजपा और शिंदे की शिवसेना ने नवी मुंबई में एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोंक दी है।
लेकिन इस चुनावी रण में सबसे ज्यादा चर्चा भाजपा के भीतर मचे घमासान की हो रही है, जहाँ दिग्गज नेता गणेश नाईक और बेलापुर की विधायक मंदाताई म्हात्रे के बीच का टकराव अब सड़कों पर आ गया है।
नवी मुंबई की राजनीति के ‘भीष्म पितामह’ कहे जाने वाले गणेश नाईक ने मनपा पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। टिकट वितरण में नाईक अपने अधिकांश समर्थकों और पुराने नगरसेवकों को मैदान में उतारने में सफल रहे हैं। हालांकि, चर्चा है कि ऐसा करते समय उन्होंने विधायक मंदाताई म्हात्रे के खेमे को पूरी तरह दरकिनार कर दिया है।
सूत्रों के अनुसार, मंदाताई म्हात्रे ने अपने 40 समर्थकों के लिए पार्टी से नामांकन (AB Form) माँगा था, लेकिन उन्हें केवल 13 फॉर्म ही दिए गए। इस उपेक्षा से नाराज होकर मंदाताई ने नाईक के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने तीखा हमला करते हुए कहा कि पार्टी नेतृत्व को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि गणेश नाईक पहले राकांपा से भाजपा में आए थे, कहीं वे अपने समर्थकों को लेकर फिर से पाला न बदल लें।
नाराजगी इस कदर बढ़ गई है कि मंदाताई म्हात्रे ने विरोध स्वरूप अपने बेटे निलेश म्हात्रे का नाम चुनावी मैदान से वापस ले लिया है। भाजपा के भीतर यह अंदरूनी लड़ाई अब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के लिए गले की फांस बन गई है। यदि यह गतिरोध नहीं सुलझा, तो इसका सीधा लाभ महाविकास आघाड़ी को मिल सकता है।
सिर्फ भाजपा ही नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की शिवसेना में भी उथल-पुथल कम नहीं है। नवी मुंबई पर कब्जा करने के लिए शिंदे ने महाविकास आघाड़ी के कई बड़े नेताओं को पार्टी में शामिल कर उन्हें टिकट दे दिया है।
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इन ‘आयातित’ नेताओं को प्राथमिकता मिलने से पार्टी के पुराने और निष्ठावान कार्यकर्ता खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। परिणाम स्वरूप, कई नाराज पदाधिकारियों ने अब उद्धव ठाकरे की शिवसेना और कांग्रेस का रुख करना शुरू कर दिया है।
नवी मुंबई में जहाँ एक ओर भाजपा और शिवसेना (शिंदे गुट) आमने-सामने हैं, वहीं दोनों दलों की आंतरिक बगावत ने विपक्षी दलों के हौसले बुलंद कर दिए हैं। अब देखना यह होगा कि नामांकन पत्रों की जांच के बाद क्या यह बागी नेता शांत होते हैं या फिर निर्दलीय चुनाव लड़कर अपने ही दलों का गणित बिगाड़ते हैं।






