जानलेवा बना तेंदू पत्ता संकलन। (सौजन्यः सोशल मीडिया)
चंद्रपुर: ग्रामीण तथा आदिवासी समुदायों के लिए आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत माने जाने वाला तेंदू पत्ता संकलन आए दिन जिले में जानलेवा साबित हो रहा है। तेंदू पत्ता संकलन के लिए जंगलों में प्रवेश करने वाले ग्रामीणों पर बाघ तथा अन्य वन्य प्राणियों द्वारा निरंतर हो रहे हमले और इन हमलों में बेगुनाह ग्रामीणों की हो रही मौतें जिले में अब चिंता और असंतोष का कारण बनती जा रही हैं।
यूँ तो प्रतिवर्ष ही अप्रैल से जून माह तक चलने वाले तेंदू पत्ता संकलन के सीजन में तेंदू संकलन के लिए जंगल में प्रवेश करने वाले ग्रामीणों पर वन्य प्राणियों के हमले होना और उक्त हमलों में एक-दो ग्रामीणों की मौत होना आम बात है, लेकिन जिले में इस बार एक ही सप्ताह में 6 महिलाओं की बाघ के हमले में जान चली गई। इसमें भी सबसे दर्दनाक बात तो यह है कि, इस बार एक समय में ही एकसाथ 3 महिलाएं बाघ का निवाला बनीं।
जिले में तेंदू पत्ता संकलन के लिए जंगलों में प्रवेश करने वाले ग्रामीणों तथा आदिवासियों पर बाघ तथा तेंदुओं के निरंतर हो रहे हमलों ने अब ग्रामीण क्षेत्रों में वन्य प्राणियों तथा मानव के बीच संघर्ष की स्थिति चरम पर पहुंचने लगी है। जिले में ग्रामीणों पर हो रहे वन्य प्राणियों के बढ़ते हमले और उससे मानव और वन्य जीवों के बीच बढ़ते जा रहे संघर्ष के बावजूद वन विभाग बेफिक्र नजर आ रहा है। जिले के जंगलों में स्थित बाघ और तेंदुओं को खाद्य की हो रही कमी के चलते हमलों की यह घटनाएं आए दिन बढ़ने का अनुमान जताया जा रहा है।
तेंदू पत्ता का संकलन कर बिक्री करना जिले में ग्रामीणों की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है। अप्रैल से जून माह के बीच ही चलने वाले इस तेंदू पत्ता संकलन के सीजन को ग्रामीण किसी भी हाल में जाया नहीं करना चाहते हैं, यही वजह है कि, वन्य प्राणियों के बढ़ते हमले और मौतों के बावजूद ग्रामीण जान जोखिम में डालकर निर्बाध रूप से जंगलों में प्रवेश करते हैं। निर्दिष्ट लघु वन उपज की श्रेणी में आने वाले तेंदू पत्ते को हरा सोना भी कहा जाता है। बीड़ी बनाने के काम आने वाले इस तेंदू पत्ते की सर्वोत्तम गुणवत्ता चंद्रपुर और गड़चिरोली जिलों में पाई जाती है।
महाराष्ट्र के 22 से अधिक जिलों में तेंदू पत्ता का उत्पादन होता है, इनमें भी सर्वाधिक जिले विदर्भ क्षेत्र से ही आते हैं। तेंदू पत्तों के संकलन के बाद उसे 50 पत्तों के एक-एक बंडल बनाए जाते हैं, ऐसे एक हजार बंडलों को एक मानक बोरा कहा जाता है, जिसकी कीमत प्रति बोरा 3 हजार से अधिक होती है। उक्त संकलित बंडलों तथा बोरों की ग्राम पंचायत की ओर से पेसा कानून के तहत नीलामी प्रक्रिया ली जाती है। व्यापारियों के माध्यम से होने वाली इस प्रक्रिया के बाद व्यापारी इस तेंदू पत्तों को तमिलनाडु तथा कर्नाटक के बीड़ी उद्योगों को बेचते हैं।